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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् ।
[ आस्रव
इह खलु रागद्वेषमोहसंपर्कजोऽज्ञानमय एव भावः, अयस्कांतोपलसंपर्कज इव कालायससूची कर्म कर्तुमात्मानं चोदयति । तद्विवेकजस्तु ज्ञानमयः, अयस्कांतोपलविवेकज इव कालायससूचीं अकर्मकरणौत्सुक्यमात्मानं स्वभावेनैव स्थापयति । ततो रागादिसं - कर्णोऽज्ञानमय एव कर्तृत्वे चोदकत्वाद्वंधकः । तदसंकीर्णस्तु स्वभावोद्भासकत्वात्केवलं ज्ञायक एव, न मनागपि बंधकः ॥ १६७ ॥
अथ रागाद्यसंकीर्णभाव संभवं दर्शयति ;
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पक्के फलमि पडिए जह ण फलं वज्झए पुणो विंटे । जीवस्स कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेई ॥ १६८ ॥
दु बंधगो होदि यथा अयस्कांतोपलसंपर्कजो भावः परिणतिविशेषः, कालायससूचिं प्रेरयति तथा जीवेन कृतो रागाद्यज्ञानजो भावः परिणतिविशेषः कर्ता, शुद्धस्वभावेन सानंदमव्ययमनादिमनंतशक्तिमुद्योतिनं निरुपलेपगुणमपि जीवं शुद्धस्वभावात्प्रच्युतं कृत्वा कर्मबंधं कर्तुं प्रेरयति । रागादिविमुको अबंधगो जाणगो णवरि रागादिज्ञानविप्रमुक्तो भावस्त्वबंधकः सन् नवरि किंतु जीवं कर्मबंध कर्तुं न प्रेरयति । तर्हि किं करोति ? पूर्वोक्तशुद्धस्वभावेनैव स्थापयति । ततो ज्ञायते निरुपरागचैतन्यचिचमत्कारमात्रपरमात्मपदार्थाद्भिन्ना रागद्वेषमोहा एव बंधकारणमिति ॥ १६७ ॥ अथ रागादिरहितशुद्धभावस्य संभवं दर्शयति ; — पक्के फलम्मि भावः ] जो रागादिकर युक्त भाव [ जीवेन कृतः ] जीवकर किया गया हो [तु] वही [बंधको भणितः ] नवीनकर्मका बंधकरनेवाला कहा गया है और जो [रागादिविप्रमुक्तः ] रागादिक भावोंसे रहित है वह [ अबंधक: ] बंध करनेवाला नहीं है [ केवलं ] केवल [ ज्ञायक: ] जाननेवाला ही है । टीका - इस आत्मामें निश्चयसे जो राग द्वेष मोहके मिलापसे उत्पन्न हुआ भाव है वह अज्ञानमय ही है । जैसे चुंबक पत्थर के संबंधसे उत्पन्न हुआ भाव लोहेकी सूईको चलाता है उसी तरह वह अज्ञानभाव आत्माको कर्म करने के लिये प्रेरणा करता है तथा उन रागादिकोंके भेदज्ञानसे उत्पन्न हुआ जो भाव है वह ज्ञानमय है । जैसे चुंबकपाषाणके संसर्ग विना सूईका स्वभावचलनेरूप नहीं है उसीतरह आत्माको कर्मकरने में उत्साहरूप नहीं ऐसे स्वभावकर स्थापित करता है । इसलिये रागादिकों से मिला हुआ अज्ञानमय भाव ही कर्मके कर्तामें प्रेरक है इसकारण नवीन बंधका करनेवाला है तथा रागादिकसे नहीं मिला हुआ भाव है वही अपने स्वभावका प्रगट करनेवाला है । वह केवल जाननेवाला ही है, वह नवीनकर्मका किंचिन्मात्र भी बंध करनेवाला नहीं है । भावार्थ - रागादिक के मिलापसे हुआ अज्ञानमय भाव ही बंध करनेवाला है और रागादिकसे नहीं मिला ऐसा ज्ञानमय भाव वह बंधका करनेवाला नहीं है यह नियम है ॥ १६७ ॥
आगे रागादिकसे नहीं मिला ऐसे ज्ञानमयभावका संभवना दिखलाते हैं; - [ यथा ]