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अधिकारः ४] . समयसारः।
२३७ तत्वात्किलास्रवाः । तेषां तु तदास्रवणनिमित्तत्वनिमित्तं, अज्ञानमया आत्मपरिणामा रागद्वेषमोहाः ? । तत आस्रवणनिमित्तत्वनिमित्तत्वात् रागद्वेषमोहा एवास्रवाः, ते चाज्ञानिन कथंभूताः, एते बहुविहभेदा जीवे । उत्तरप्रत्ययभेदेन बहुधा विविधाः, क ? जीवे, अधिकरणभूते । पुनरपि कथंभूताः। तस्सेव अणण्णपरिणामा अनन्यपरिणामाः, अभिनपरिणामाः तस्यैव जीवस्याशुद्धनिश्चयनयेनेति । णाणावरणादीयस्स ते दु कम्मरस कारणं होंति ते च पूर्वोक्तद्रव्यप्रत्ययाः उदयागताः संतः निश्चयचारित्राविनाभूतवीतरागसम्यक्त्वाभावे सति शुद्धात्मस्वरूपच्युतानां जीवानां ज्ञानावरणाद्यष्टविधस्य द्रव्यकर्मास्रवस्य कारणभूता भवंति । तेसिंपि होदि जीवो रागदोसादिभावकरो तेषां च द्रव्यप्रत्ययानां जीवः कारणं भवति । कथंभूतः ? रागद्वेषादिभावकर रागद्वेषादिभावपरिणतः। अयमत्र भावार्थःद्रव्यप्रत्ययोदये सति शुद्धात्मस्वरूपभावनां त्यक्त्वा यदा रागादिभावेन परिणमति तदा बंधो भवति नैवोदयमात्रेण । यदि उदयमात्रेण बंधो भवति ? तदा सर्वदा संसार एव । कस्मात् ? इति चेत् संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात् । तर्हि कर्मोदयो बंधकारणं न भवति, ? इति चेत् उनमेंसे चेतनके विकार हैं वे [ जीवे ] जीवमें [ बहुविधभेदाः ] बहुत भेद लिये हुए हैं वे [ तस्यैव अनन्यपरिणामाः ] उस जीवके ही अभेदरूप परिणाम हैं
और जो मिथ्यात्व आदि पुद्गलके विकार हैं [ ते तु] वे तो [ ज्ञानावरणाद्यस्य] ज्ञानावरण आदि [कर्मणः ] कर्मों के बंधनेके [कारणं] कारण [भवंति] है [च ] और [ तेषामपि ] उन मिथ्यात्व आदि भावोंको भी [रागद्वेषादिभावकरः] रागद्वेष आदि भावोंका करनेवाला [जीवः ] जीव [ भवति ] कारण होता है। टीका-इस जीवमें राग द्वेष मोह ही आस्रव हैं । कैसे हैं वे ? कि जिनको अपना परिणाम निमित्त है इसीलिये जड़ भी नहीं हैं । ऐसा होनेपर वे चिदाभास हैं जिनमें चैतन्यका आभास है, क्योंकि मिथ्यात्व अविरति कषाय और योग पुद्गलके परिणाम हैं वे ज्ञानावरण आदि पुद्गलों के आनेके निमित्त हैं उसपनेसे वे प्रगट आस्रव हैं । तथा उन मिथ्यात्वादिकोंको ज्ञानावरणादि कर्मोंके आगमनका निमित्तपना होनेके कारण आत्माके अज्ञानमय राग द्वेष मोह परिणाम हैं इसलिये मिथ्यात्व आदिके कर्मके आसवणके निमित्तपनेके निमित्तपनेसे राग द्वेष मोह ही आस्रव हैं वे अज्ञानीके ही होते हैं ऐसा तात्पर्यसे अर्थ निकलता है सूत्र में नहीं कहा हुआ भी प्रकरणसे ऐसा अर्थ आसकता है ॥ भावार्थ-ज्ञानावरणादि कर्मोंके आनेका कारण तो मिथ्यात्वादि कर्मका उदयरूप पुद्गलके परिणाम हैं और उन कर्मों के आनेका निमित्त जीवके राग द्वेष मोहरूप परिणाम हैं उनको चिद्विकार भी कहते हैं, वे जीवके अज्ञान अवस्थामें होते हैं। सम्यग्दृष्टीके अज्ञान अवस्था होती नहीं क्योंकि मिथ्यात्वसहित ज्ञानको अज्ञान कहते हैं । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी होगया है इसलिये वे ज्ञान अवस्थामें नहीं हैं। तथा अ