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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ पुण्यपाप-,
मादस्य च ॥ ३ ॥ “भेदोन्मादभ्रमरसभरान्नाटयत्पीतमोहं मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन । हेलोन्मीलत्परमकलया सार्धमारन्धकेलि ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज
तीति मत्वा हेयं त्याज्यमिति व्याख्यानमुख्यत्वेन गाथानवकं गतं ॥ १६१ । १६२ । १६३ ॥ द्वितीयपातनिकाभिप्रायेण पापाधिकारव्याख्यानमुख्यत्वेन गतं । अत्राह शिष्यः । जीवादी सद्दहणमित्यादि व्यवहाररत्नत्रयव्याख्यानं कृतं तिष्ठति कथं पापाधिकार इति । तत्र परिहारः—यद्यपि व्यवहारमोक्षमार्गे निश्चयरत्नत्रयस्योपादेयभूतस्य कारणभूतत्वादुपादेयः परंपरया जीवस्य पवित्रताकरणात् पवित्रस्तथापि बहिर्द्रव्यालंबनत्वेन पराधीनत्वात्पतति नश्यतीत्येकं कारणं । निर्विकल्पसमाधिरतानां व्यवहारविकल्पालंबनेन स्वरूपात्पतितं भवतीति द्वितीयं कारणं । इति निश्चयनयापेक्षया पापं । अथवा सम्यक्त्वादिविपक्षभूतानां मिथ्यात्वादीनां व्याख्यानं
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कर्मकांडमें प्रवर्तते हैं वे कर्मका नाशकर संसारसे निवृत्त होते हैं, वे ही सब लोकों के ऊपर रहते हैं ऐसा जानना ।। आगे इस पुण्यपापाधिकारको संपूर्णकर ज्ञानकी महिमा करते हैं- भेदोन्मादं इत्यादि । अर्थ - ज्ञानज्योति अतिशयकर उदयको प्राप्त हुई सब जगह फैलती है । कैसी ज्योति है ? कि जो लीलामात्रकर उघड़ी अपनी परमकला केवलज्ञानके साथ जिसने क्रीड़ा आरंभ की है । यहां ऐसा अभिप्राय समझना कि जबतक सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ है तबतक तो उसकी जो ज्ञानपरमकला केवलज्ञान उसके साथ शुद्धनयके बलसे परोक्षक्रीडा करता है और जब केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है तब है । फिर कैसी ज्योति है ? कि जिसने अज्ञानरूपी अंधकारको दूर कर दिया है। ऐसी ज्ञान ज्योति क्या करके प्रगट हुई ? पूर्वोक्त शुभ अशुभरूप समस्त कर्मों को अपने बल (शक्ति) कर मूलसे उखाड़करके । कैसा है यह कर्म ? कि जिसने मोह पीलिया' है इसीलिये भ्रमके रस के भारसे शुभ अशुभके भेदरूप उन्मादको नचाता हुआ है || भावार्थ - ज्ञानज्योति, अपने प्रतिबंधककर्म जोकि भेदरूप होके नृत्य करताथा ज्ञानको भुलादेताथा उस कर्मको अपनी शक्तिसे बिगाड़ आप अपने संपूर्ण रूप सहित प्रकाशरूप हुई । यहां अभिप्राय ऐसा जानना कि कर्म सामान्यपनेसे एक ही है तौभी शुभअशुभ दो भेदरूप स्वांगकर रंगभूमिमें उसने प्रवेश किया था उसे ज्ञानने यथार्थ एक जान लिया तब कर्म रंगभूमि से निकल गया । उसके वाद ज्ञान अपनी शक्तिकर यथार्थप्रकाशरूप हुआ ऐसा जानना || इसतरह कर्म नृत्यके अखाड़े में पुण्यपापरूपकर दो नृत्यकारिणी . बनकर नाचता था उसे ज्ञानने यथार्थ जान लिया कि कर्म एक ही है, तब एकरूपकर निकलगया नृत्य करते रहगया || सवैया - "आश्रयकारणरूप सवादसुं भेद विचारि गिनें दोऊ न्यारे, पुण्यरु पाप शुभाशुभ भावनि बंधभये सुखदुःखकरा रे । ज्ञान भये दोऊ एक लखै बुध आश्रय आदि समान विचारे, बंधके कारण हैं दोऊरूप इन्हें तजि जिन