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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात् ॥५४॥ आसंसारत एव धावति परं कुर्वेहमित्युच्चकैः दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः । सद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत् तकि ज्ञानघनस्य बंधनमहो भूयो भवेदात्मनः ॥ ५५ ॥ आत्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः । आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते ॥ ५६ ॥ " ॥ ८६ ॥
मिच्छन्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं । अविरदि जोगो मोहो कोधादीया इमे भावा ॥ ८७ ॥ मिथ्यात्वं पुनर्द्विविधं जीवोऽजीवस्तथैवाज्ञानं । अविरतियोगो मोहः क्रोधाद्या इमे भावाः ॥ ८७ ॥ मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो हि भावाः ते तु प्रत्येकं मयूरमुकुरंदवजीवाजीवनाबलेन सज्ञानिनामेव विलयं विनाशं गच्छति । तस्मिन्महाहंकार विकल्पजाले नष्टे सति पुनरपि बंधो न भवतीति ज्ञात्वा बहिर्द्रव्यविषये इदं करोमीदं न करोमीति दुराग्रहं त्यक्त्वा रागादिविकल्पजालशून्ये पूर्णकलशवच्चिदानंदैकस्वभावेन भरितावस्थे स्वकीयपरमात्मनि निरंतरं भावना कर्त्तव्येति भावांर्थः ॥ ८६ ॥ इति द्विक्रियावादिसंक्षेपव्याख्यानमुख्यत्वेन गाथाद्वयं गतं । भी नहीं होतीं क्योंकि एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप नहीं होता || भावार्थ - निश्चयनयकर यह नियम है वह शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर कहा जानना || अब कहते हैं कि आत्माके अनादि से परद्रव्यके कर्ता कर्मपनेका अज्ञान है वह यदि परमार्थनयके ग्रहणकर एक वार भी विलय हो जाय तो फिर कभी नहीं आसकता — आसंसारत इत्यादि । अर्थ- — इस जगतमें मोही अज्ञानी जीवोंका "यह मैं परद्रव्यको करता हूं" ऐसा परद्रव्यके कर्तापनेका अहंकाररूप अज्ञानांधकार अनादि संसारसे लेकर चला आया है । जो कि अत्यंत दुर्निवार है दूर नहीं किया जासकता । सो आचार्य कहते हैं कि परमार्थ सत्यार्थ शुद्ध द्रव्यार्थिक अभेद नयके ग्रहण कर जो वह एकवार भी नाश हो जाय तो यह जीव ज्ञानघन है । यथार्थ ज्ञान हुए वाद ज्ञान कहां जासकता है। कहीं भी नहीं जा सकता । जब ज्ञान नहीं जा सकता तब फिर कैसे अज्ञानसे बंध हो सकता है कभी नहीं हो सकता ॥ भावार्थ – यहां ऐसा तात्पर्य है कि अज्ञान तो अनादिका ही है परंतु दर्शन मोहका नाश कर एक वार यथार्थ ज्ञान होके क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाय तो फिर मिध्यात्व नहीं आसके तब उस मिध्यात्वका बंध भी न हो और मिथ्यात्व गये बाद संसारबंधन कैसे रह सकता है मोक्ष ही पाये, ऐसा जानना ॥ फिर भी विशेषतासे कहते हैं— आत्म इत्यादि । अर्थ- आत्मा तो अपने भावोंको ही करता है और परद्रव्य परके भावोंको करता है । क्योंकि अपने भाव तो अपने ही है तथा परभाव परके ही हैं यह नियम है ॥ ८६ ॥
आगे परद्रव्यका कर्ताकर्मपनेके माननेको अज्ञान कहा कि ऐसा माने वह मिथ्या