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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् ।
स्वादभेदव्युदासः । ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः क्रोधादेश्व प्रभवति भिदा भिंदती कर्तृभावं ॥ ६० ॥ अज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमंजसा । स्यात्कर्तात्मात्मभावस्य परभावस्य न क्वचित् ॥ ६१ ॥ आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किं । परभावस्य कर्तात्मा मोहोयं व्यवहारिणां ॥ ६२ ॥ " ॥ ९७ ॥
तथा हि
ववहारेण दु एवं करेदि घडपडस्थाणि दव्वाणि । करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि ॥ ९८ ॥ व्यवहारेण त्वात्मा करोति घटपटरथान् द्रव्याणि ।
करणानि च कर्माणि च नोकर्माणीह विविधानि ॥ ९८ ॥
व्यवस्था
व्यवहारिणां हि यतो यथायमात्मात्मविकल्पव्यापाराभ्यां घटादिपरद्रव्यात्मकं बहिःकर्म दशगाथापर्यंतं द्विक्रियावादिनिराकरणविषये विशेषव्याख्यानं करोति ॥ ९७ ॥ तद्यथा – परभावानात्मा करोतीति यद्व्यवहारिणो वदंति स व्यामोह इत्युपदिशति; - ववहारेण दु एवं करेदि धडपडरथाणि दव्वाणि यतो यथा अन्योन्यव्यवहारेणैवं तु पुनः घटपटादि बहिर्द्रव्याणीहापूर्वेण करोत्यात्मा करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि जाता है— ज्ञानादेव इत्यादि । अर्थ --- अग्नि और जलकी उष्णपने और शीतपनेकी वह ज्ञानसे ही जानी जाती है और लवण तथा व्यंजनके स्वादका भेद है वह ज्ञानसे ही जाना जाता है । और अपने रसकर विकाशरूप हुआ नित्य चैतन्य धातु उसका तथा क्रोधादिक भावोंका भेद भी ज्ञानसे ही जाना जाता है । जो यह भेद कर्तापने भावको भेदरूप करता प्रगट होता है | फिर कहते हैं कि आत्मा कर्ता होता है तभी अपने भावका ही है-अज्ञानं इत्यादि । अर्थ - इस प्रकार अज्ञानरूप तथा ज्ञानरूप भी आत्माको ही करताहुआ आत्मा प्रगटपनेसे अपने ही भावका कर्ता है परभावका कर्ता तो कभी नहीं है | आगे आगेकी गाथाकी सूचनिकारूप लोक कहते हैं— आत्मा इत्यादि । अर्थ - आत्मा ज्ञानस्वरूप है वह आप ज्ञान ही है ज्ञानसे अन्य किसको करे ? किसीको नहीं करता । और परभावका कर्ता आत्मा है ऐसा मानना तथा कहना है यह व्यवहारी जीवोंका मोह ( अज्ञान ) है ॥ ९७ ॥
आगे यही कहते हैं कि व्यवहारी ऐसा कहते हैं; - [ आत्मा ] आत्मा [ व्यवहारेण तु ] व्यवहारकर [ घटपटरथान् द्रव्याणि ] घट पट रथ इन वस्तुओं को [ करोति ] करता है [च] और [ करणानि ] इंद्रियादिक करणपदार्थों को करता है [च] और [ कर्माणि ] ज्ञानावरणादिक तथा क्रोधादिक द्रव्यकर्म भावकर्मों को करता है [ च इह ] तथा इस लोकमें [ विविधानि ] अनेकप्रकारके
१ अत्र आदा इत्यपि पाठः ।