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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् ।
नर्जीवे बद्धमबद्धं च कर्मेति विकल्पयति स तु तं द्वितयमपि पक्षमनतिक्रामन्न विकल्पमतिक्रामति । ततो य एव समस्तनयपक्षमतिक्रामति स एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति । य एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति स एव समयसारं विंदति । यद्येवं तर्हि को हि नाम पक्षसंन्यासभावनां न नाटयति । " य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसंति नित्यं । विकल्पजालच्युतशांतचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबंति ॥ ७० ॥ एकस्य बद्धो न तथा परस्य चितिद्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव ॥ ७१ ॥ एकस्य मूढो न तथा परस्य चितिद्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ७२ ॥ एकस्य रक्तो न तथा परस्य चितिद्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ७३॥ एकस्य दुष्टो न तथा परस्य चितिद्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव ॥ ७४ ॥ एकस्य कर्ता न तथा परस्य चितिद्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ७५ ॥ एकस्य भोक्ता
जीव इति नयविकल्पः शुद्धजीवस्वरूपं न भवति निश्चयेनाबद्धो जीव इति च नयविकल्पः शुद्धजीवस्वरूपं न भवति निश्वयव्यवहाराभ्यां बद्धाबद्धजीव इति वचनविकल्पः शुद्धजीवस्वरूपं न भवति । कस्मादिति चेत् ? श्रुतविकल्पा नया इति वचनात् । श्रुतज्ञानं च क्षायोपशमिकं
हुआ भी है तथा नहीं बंधा भी है ये दोनों नयपक्ष है । उनमें से किसीने तो बंधपक्षको पकड़ा उसने भी विकल्प ही ग्रहण किया, किसीने अबंधपक्ष स्वीकार किया उसने भी विकल्प ही लिया और किसीने दोनों पक्ष लीं उसने भी पक्षका ही विकल्प ग्रहण किया । परंतु ऐसे विकल्पोंको छोड़ जो किसी भी पक्षको नहीं पकड़ता वह ही शुद्ध पदार्थका स्वरूप जान उसरूप समयसार शुद्ध आत्माको पाता है । नयोंका पक्ष पकड़ना राग है सो सब नय पक्षोंको छोड़ वीतराग समयसार हो जाता है | यहांपर पूछते हैं कि यदि ऐसा है तो नयपक्षके त्यागकी भावनाको कोंन नृत्य कराता है ? उसका उत्तररूप काव्य कहते हैं - य एव इत्यादि । अर्थ -- जो पुरुष नयके पक्षपातको छोड़ • अपने स्वरूपमें गुप्त होके निरंतर स्थिर होते हैं वे ही पुरुष विकल्पके जालसे रहित शांतचित्त हुए साक्षात् अमृतको पीते हैं । भावार्थ- - जबतक कुछ पक्षपात रहता है। तबतक चित्तका क्षोभ नहीं मिटता, जब सब नयोंका पक्षपात मिटजाय तब वीतरागदशा होके स्वरूपकी श्रद्धा निर्विकल्प होती है और स्वरूप में प्रवृत्ति होती है ॥ अब नयपक्षको प्रगटकर कहते हैं जो उसको छोड़ता है वह तत्त्वज्ञानी होके स्वरूपको पाता है ऐसे अर्थके कलशरूप वीस काव्य कहते हैं— एकस्य इत्यादि । अर्थतो ऐसा पक्ष है कि यह चिन्मात्र जीव कर्मसे बंधा हुआ है और
— एक नयका
दूसरे नयका पक्ष