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रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायाम् ।
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करोति ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञानघनात्प्रभ्रष्टो वारंवारमनेकविकल्पैः परिणमन् कर्ता प्रतिभाति । ज्ञानी तु सन् ज्ञानात्तदादिप्रसिद्ध्या प्रत्येकस्वादस्वादनेनोन्मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिः स्यात् । ततोऽनादिनिधनानवरत स्वदमाननिखिलरसांतर विविक्तात्यंतमधुरचैतन्यैकरसोऽयमात्मा भिन्नरसाः कषायास्तैः सह यदेकत्वविकल्पकरणं तदज्ञानादित्येवं नानात्वेन परात्मानौ जानाति । ततोऽकृतकमेकं ज्ञानमेवाहं न पुनः कृतकोऽनेकः क्रोधादिरपीति क्रोधोहमित्यादिविकल्पमात्मनो मनागपि न करोति ततः समस्तमपि कर्तृत्वमपास्यति । ततो नित्यमेवोदासीनावस्थो जानन् एवास्ते । ततो निर्विकल्पोऽकृतक एको विज्ञानघनो भूतोऽत्यंतमकर्ता प्रतिभाति । " अज्ञानतस्तु सतॄणाभ्यवहारकारी ज्ञानं स्वयं किल भववस्तुस्वरूपं जानाति स सरागसम्यग्दृष्टिः सन्नशुभकर्मकर्तृत्वं मुंचति । निश्चयचारित्राविनाभाविवीतरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा शुभाशुभसर्वकर्मकर्तृत्वं च मुंचति । एवमज्ञानात्कर्म प्रभवति संज्ञानान्नकर्मका और अपने भावका मिला हुआ आस्वादका स्वाद लेनेसे जिसकी अपने जुदे अनुभवकी शक्ति मुद्रित होगई है ऐसा अनादि काल से ही है । इसकारण परको और अपनेको एकपनेकर जानता है । मैं क्रोध हूं इत्यादिक विकल्प अपनेमे करता है इसलिये निर्विकल्परूप अकृत्रिम एक जो अपना विज्ञानघन स्वभाव उससे भ्रष्ट हुआ वारंवार अनेक विकल्पोंकर परिणमता कर्ता प्रतिभासता है । और जब ज्ञानी हो जाय तब सम्यग्ज्ञानसे उस सम्यग्ज्ञानको आदि लेकर प्रसिद्ध हुआ जो पुद्गलकर्मके स्वादसे अपना भिन्न स्वाद उसके आस्वादनकर जिसकी भेदके अनुभवकी शक्ति उघड़
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है ऐसा होता है तब ऐसा जानता है कि अनादिनिधन निरंतर स्वाद में आता हुआ समस्त अन्य रसके स्वादों से विलक्षण ( भिन्न ) अत्यंत मधुर ( मीठा ) जो एक चैतन्यस्वरूपरस उस स्वरूप तो यह आत्मा है और कषाय इससे भिन्न रस हैं कषायले वेस्वाद हैं उनकर सहित जो एकपनेका विकल्प करना है वह अज्ञानसे है । इस प्रकार परको और आत्माको जुदे २ नानापनेकर जानता है । इसलिये अकृत्रिम नित्य एक ज्ञान ही मैं हूं और कृत्रिम अनित्य अनेक जो ये क्रोधादिक वे मैं नहीं हूं ऐसा जाने ब “क्रोधादिक मैं हूं” इत्यादिक विकल्प अपने में किंचिन्मात्र भी नहीं करता । इसका समस्तही कर्तापनेको छोड़ता है सदा ही उदासीन वीतरागअवस्थाखरूप होके मानता हुआ तिष्ठत है इसीलिये निर्विकल्पस्वरूप अकृत्रिम नित्य एक विज्ञानघन हुआ अत्यंत अकर्ता प्रतिभासता है ॥ भावार्थ - जो परद्रव्यका और परद्रव्यके भावोंका अपने कर्तापनेको अज्ञान जाने तब आप कर्ता क्यों वनें ? अज्ञानी रहना हो तो पर द्रव्यका कर्ता वनें । इसलिये ज्ञान हुए वाद परद्रव्यका कर्तापना नहीं रहता ।। अव इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं - अज्ञान इत्यादि । अर्थ- जो पुरुष आप निश्चयसे ज्ञानस्वरूप हुआ भी अज्ञानसे तृणसहित मिलेहुए अन्नादिक सुंदर आहारको खानेवाले