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समयसारः । नपि रज्यते यः । पीत्वा दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृङ्ख्या गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालं ॥ ५७॥ अज्ञानान्मृगतृष्णिकां जनधिया धावंति पातुं मृगा अज्ञानात्तमसि द्रवंति भुजगाध्यासेन रजौ जनाः । अज्ञानाच विकल्पचक्रकरणद्वातोत्तरंगाब्धिवत् शुद्धज्ञानमया अपि खयममी कीभवंत्याकुलाः ॥ ५८॥ ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनार्यों जानाति हंस इव वाः पयसा विशेषे । चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो जानाति एव हि करोति न किंचनापि ॥ ५९॥ ज्ञानादेव ज्वलनपयसोरोष्ण्यशैत्यव्यवस्था ज्ञानादेवोल्लसति लवणश्यतीति स्थितं । इत्यज्ञानिसंज्ञानिजीवप्रतिपादनमुख्यत्वेन द्वितीयस्थले गाथाषटुं गतं । एवं द्विक्रियावादिनिराकरणविशेषव्याख्यानरूपेण द्वादशगाथा गताः । अथ पुनरप्युपसंहाररूपेणैकाहस्ती आदि तिर्यचके समान होता है वह क्या करता है उसका दृष्टांत कहते हैं । जैसे कोई शिखरिनको पीकर उसके दही मीठेका मिलाहुआ खाटा मीठा रस उसकी अत्यंत इच्छाकर उसके रसभेदको न जानकर दूधके लिये गायको दोहता है ॥ भावार्थजैसे कोई पुरुष शिखरिनको पीकर उसके स्वादकी अतिइच्छासे रसके ज्ञानविना ऐसा जानता है कि यह गायके दूधमें स्वाद है सो अतिलुब्ध हुआ गायको दोहता है उसीतरह अज्ञानी पुरुष अपना और परका भेद न जान विषयोंमें स्वाद जान पुद्गलकर्मको अतिलुब्ध होके ग्रहण करता है अपने ज्ञानका और पुद्गलकर्मका स्वाद जुदा नहीं अनुभवता । तिर्यंच (पशु) की तरह घासमें मिलेहुए अन्नका एक स्वाद लेता है ।। फिर कहते हैं कि ऐसे अज्ञानसे पुद्गलकर्मका कर्ता होता है-अज्ञानान्मृग इत्यादि । अर्थ-ये लोकके जन हैं वे निश्चयकर शुद्ध एक ज्ञानमय हैं तौभी आप अज्ञानसे व्याकुल होके परद्रव्यके कर्तारूप होते हैं । जैसे पवनकर कल्ोलोंसहित समुद्र होता है उसीतरह विकल्पोंके समूह करते हैं इसलिये कर्ता वन रहे हैं । देखो अज्ञानसे ही मृग बालूको जल जानकर पीनेको दौड़ते हैं और अज्ञानसे ही लोक अंधकारमें रस्सीमें सर्पका निश्चयकर भयसे भागते हैं। भावार्थ-अज्ञानसे क्या क्या नहीं होता ? मृगतो बालूको जल जान पीनेको दौड़ता खेदखिन्न होता है लोक अंधेरे में रस्सेको सर्प मान डरकर भागते हैं उसी प्रकार यह आत्मा जैसे वायुकर समुद्र क्षोभरूप हो जाता है वैसे अज्ञानकर अनेक विकल्पोंसे क्षोभरूप होता है । वह परमार्थसे शुद्ध ज्ञानघन है तौभी अज्ञानसे कर्ता होता है। फिर कहते हैं कि ज्ञानसे कर्ता नहीं होता-ज्ञानाद् इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष ज्ञानसे और भेदज्ञानीपनेसे परका तथा आत्माका विशेषकर भेद जानता है वह पुरुष हंसके समान (जैसै हंस दूध जलमिले हुएको भेदकर ग्रहण करता है ) चैतन्य धातु अचलको सदा आश्रय करता हुआ जानता ही ( ज्ञाता ही) है कुछ भी नहीं करता ॥ भावार्थ-जो अपना पराया भेद जानता है वह ज्ञाता ही है कर्ता नहीं है ॥ आगे कहते हैं कि जो कुछ जाना जाता है वह ज्ञानसेही जाना
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