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समयसारः।
१९३ जाबूनदमयाद्भावाजांबूनदजातिमनतिवर्तमानाजांबूनदकुंडलादय एव भावा भवेयुर्न पुनः कालायसवलयादयः । कालायसमयाद्भावाच कालायसजातिमनतिवर्तमानाः कालायसवलयादय एव भवेयुर्न पुनर्जाबूनदकुंडलादयः । तथा जीवस्य स्वयं परिणामस्वभावत्वे सत्यपि कारणानुविधायित्वादेव कार्याणां अज्ञानिनः स्वयमज्ञानमयाद्भावादज्ञानजातिमनतिवर्तमाना विविधा अप्यज्ञानमया एव भावा भवेयुर्न पुनर्ज्ञानमयाः, ज्ञानिनश्च स्वयं ज्ञानमयाद्भावाबूनददृष्टांतेन ज्ञानिनो जीवस्य ज्ञानमयाः सर्वे भावाः पर्याया भवंति । किं च विस्तरः । वीतरागस्वसंवेदनभेदज्ञानी जीवः यं शुद्धात्मभावनारूपं परिणामं करोति स परिणामः सर्वोपि ज्ञानमयो भवति । ततश्च येन ज्ञानमयपरिणामेन संसारस्थितिं हित्वा देवेंद्रलोकांतिकादिमहर्द्धिकदेवो भूत्वा घटिकाद्वयेन मतिश्रुतावधिरूपं ज्ञानमयभावं पर्यायं लभते । ततश्च विमानपरिवारादिविभूति जीर्णतृणमिव गणयन्पंचमहाविदेहे गत्वा पश्यति । किं पश्यतीति चेत्, तदिदं समवसरणं त एते वीतरागसर्वज्ञास्त एते भेदाभेदरत्नत्रयाराधनापरिणता गणधरदेवादयो ये पूर्व श्रूयंते परमागमे ते दृष्ट्वाः प्रत्यक्षेणेति मत्वा, विशेषेण दृढधर्ममतिर्भूत्वा तु चतुर्थगुणस्थानयोग्याशुद्धभावनामपरित्यजन्निरंतरं धर्मध्यानेन देवलोके कालं गमयित्वा, पश्चान्मनुष्यभवे राजाधिराजमहाराजार्द्धमंडलीकमहामंडलीकबलदेवचक्रवर्तितीर्थकरपरमदेवादिपदे लब्धेपि पूर्वभववासनावासितशुद्धात्मरूपं मयभाव होनेसे ज्ञानमयभाव [भवंति] होते हैं ॥ टीका-जैसे निश्चयकर पुद्गलद्रव्यके स्वयं परिणामस्वभावपनारूप होनेपर भी जैसा पुद्गल कारण हो उसस्वरूप कार्य होता है यह प्रसिद्ध है । ऐसा होनेपर सुवर्णमयभावसे सुवर्णजातिको नहीं उल्लंघके वर्तते सुवर्णमय ही कुंडलआदिक भाव होते हैं, सुवर्णसे लोहमयी कड़ाआदिक भाव नहीं होते। और लोहमयी भावसे लोहकी जातिको नहीं उल्लंघके वर्तते लोहमय कड़ेआदिक भाव होते हैं, लोहसे सुवर्णमयी कुंडलआदिक भाव नहीं होते उसीतरह जीवके स्वयं परिणामभावरूप होनेपर भी "जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है" इस न्यायसे अज्ञानीके स्वयमेव अज्ञानमयभावसे अज्ञानकी जातिको नहीं उल्लंघकर वर्तनेवाले अनेक प्रकारके अज्ञानमय ही भाव होते हैं ज्ञानमयभाव नहीं होते, और ज्ञानीके ज्ञानकी जातिको नहीं उल्लंघकर वर्तते सब ज्ञानमय ही भाव होते हैं अज्ञानमय नहीं होते ॥ भावार्थ-जैसा कारण हो वैसा ही कार्य होता है' इस न्यायसे जैसे सुवर्णसे सुवर्णमयी आभूषण होते हैं लोहसे लोहमयी होते हैं उसीतरह अज्ञानीके अज्ञानसे अज्ञानमयभाव होते हैं और ज्ञानीके ज्ञानसे ज्ञानमय ही भाव होते हैं । यहांपर ऐसा आशय समझना कि अज्ञानभाव तो क्रोधादिक हैं और ज्ञानभाव क्षमाआदिक हैं । यद्यपि अविरत सम्यग्दृष्टिके चारित्रमोहके उदयसे क्रोधादिक भी प्रवर्तते हैं तौभी उनमें आत्मबुद्धि नहीं है, परके निमित्तसे हुई उपाधि मानता है वह उदय देके खिर जाता है आगामी ऐसा बंध नहीं करता कि जिससे संसारका भ्रमण वढे ।
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