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समयसारः।
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खपरिणामानुरूपं पुद्गलस्य परिणामं पुद्गलादव्यतिरिक्तं पुद्गलादव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभातु । “यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥ ५१॥ एकः परिणमति सदा परिणामो जायते सदैकस्य । एकस्य परिणतिः स्यादनेकमप्येकमेव यतः ॥ ५२ ॥ नोभौ परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत । उभयोन परिणतिः स्याघदनेकमनेकमेव सदा ॥५३॥ नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणी न चैकस्य । नैकस्य च पुद्गलद्रव्यत्वं प्राप्नोति । पुद्गलकर्मणो वा चिद्रूपं जीवत्वं प्राप्नोति । किं च । शुभाशुभं कर्म कुर्वेहमिति महाहंकाररूपं तमो मिथ्याज्ञानिनां न नश्यति । तर्हि केषां नश्यतीति चेत्, विषयसुखानुभवानंदवर्जिते वीतरागस्वसंवेदनवेद्ये भूतार्थनयेनैकत्वव्यवस्थापिते चिदानंदैकस्वभावे शुद्धपरमात्मद्रव्ये स्थितानामेव समस्तशुभाशुभपरभावशून्येन निर्विकल्पसमाधिलक्षणेन शुद्धोपयोगभायदि जड और चेतनकी एक क्रिया हो जाय तो सर्व द्रव्य पलटनेसे सबका लोप हो जाय यह बड़ा भारी दोष हो ॥ अब इसी अर्थके समर्थनका कलशरूप काव्य कहते हैं । यःपरिणमति इत्यादि । अर्थ-जो परिणमता है वह कर्ता है और जो परिणमा उसका परिणाम है वह कर्म है तथा जो परिणति है वह क्रिया है। ये तीनों ही वस्तुपनेसे भिन्न नहीं हैं। भावार्थ-द्रव्यदृष्टिसे परिणाम और परिणामीमें अभेद है तथा पर्यायदृष्टिकर भेद है। वहां भेद दृष्टिकर तो कर्ता कर्म क्रिया ये तीन कहे गये हैं और अभेद दृष्टिकर वास्तवमें यह कहा गया है कि कर्ता कर्म क्रिया ये तीनों ही एक द्रव्यकी अवस्थायें हैं प्रदेशभेदरूप जुदे वस्तु नहीं हैं। फिर भी कहते हैं-एकः इत्यादि । अर्थ-वस्तु अकेली ही सदा परिणमती है एकके ही सदा परिणाम होते हैं अर्थात् एक अवस्थासे अन्य अवस्था होती है । तथा एककी ही परिणतिक्रिया होती है । अनेकरूप हुई तौभी एक ही वस्तु है भेद नहीं है। भावार्थ-एक वस्तुके अनेक पर्याय होते हैं उनको परिणाम भी कहते हैं अवस्था भी कहते हैं । वे संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजनादिककर जुदे २ प्रतिभासरूप हैं तौभी एक वस्तु ही हैं जुदे नहीं हैं ऐसा भेदाभेद स्वरूप ही वस्तुका स्वभाव है । फिर कहते हैं-नोभौ इत्यादि । अर्थ-दो द्रव्य एक होके नहीं परिणमते और दो द्रव्यका एक परिणाम भी नहीं होता तथा दो द्रव्यकी एक परिणति क्रिया भी नहीं होती। क्थोंकि जो अनेक द्रव्य हैं वे अनेक ही हैं एक नहीं होते ॥ भावार्थ-दो वस्तु हैं वे सर्वथा भिन्न ही हैं प्रदेश भेदरूप ही हैं दोनों एकरूप होकर नहीं परिणमतीं एक परिणामको भी नहीं उपजातीं और एक क्रिया भी उनकी नहीं होती ऐसा नियम है। जो दो द्रव्य एकरूप हो परिणमैं तो सब द्रव्योंका लोप हो जाय ॥ फिर इसी अर्थको दृढ करते हैं-नैकस्य इत्यादि । अर्थ-एक द्रव्यके दो कर्ता नहीं होते, एक द्रव्यके दो कर्म नहीं होते और एक द्रव्यकी दो क्रियायें