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समयसारः।
१३९ नुभूयमाने च बहिर्व्याप्यव्यापकभावेन कलशसंभवानुकूलं व्यापारं कुर्वाणः कलशकृततोयोपयोगजां तृप्तिं भाव्यभावकभावेनानुभवंश्च कुलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोस्ति तावद्व्यवहारः, तथांताप्यव्यापकभावेन पुद्गलद्रव्येण कर्मणि क्रियमाणे भाव्यभावकभावेन पुद्गलद्रव्येणैवानुभूयमाने च बहिाप्यव्यापकभावेनाज्ञानात्पुद्गलकर्मसंभवानुकूलं परिणामं कुर्वाणः पुद्गलकर्मविपाकसंपादितविषयसन्निधिप्रधावितां सुखदुःखपरिणतिं भाव्यभावकभावेनानुभवंश्च जीवः पुद्गलकर्म करोत्यनुभवति चेत्यज्ञानिनामासंसारप्रसिद्धोस्ति तावद्व्यवहारः॥ ८४ ॥ घटं करोति तत्फलं च जलधारणमूल्यादिकं मुक्तं इति लोकानामनादिरूढोस्ति व्यवहारः । तथा यद्यपि कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलद्रव्यमुपादानकारणभूतं तथापि व्यवहारनयस्याभिप्रायेणात्मा पुद्गलकर्मानेकविधं मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्नं करोति तं चेव य वेदयदे पुग्गलकम्म अणेयविहं तथैव च तमेवोदयागतं पुद्गलकर्मानेकविधं इष्टानिष्टपंचेन्द्रियविषयरूपेण वेदयति अनुभवति इत्यज्ञानिनां निर्विषयशुद्धात्मोपलंभसंजातसुखामृतरसास्वादरहितानामनादिरूढोस्ति व्यवहारः ॥८४॥ प्रकार [पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्मको [ वेदयते] भोगता है ॥ टीका-वहां पहले दृष्टांत कहते हैं-जैसे मट्टी घड़ेको करती है और भोगती है वह अंताप्यव्यापकभावकर करती है तथा भाव्यभावकभावकर भोगती है तौभी बाह्य व्याप्यव्यापकभावकर कलश होनेमें संभव उसके अनुकूल व्यापारको अपने हस्तादिक कर करता तथा कलशकर किये जलके उपयोगसे हुए तृप्तिभावको भाव्यभावकभावकर अनुभवकरता ( भोगता) जो कुम्हार उसको लोक कहते हैं कि इस कलशको कुम्हार करता है तथा भोगता है। ऐसा लोकोंका अनादिसे प्रसिद्ध हुआ व्यवहार प्रवर्त रहा है। उसी तरह दाष्टीत हैपुद्गलकर्मको अंताप्यव्यापकभावकर पुद्गलद्रव्य करता है और भाव्यभावकभावकर पुद्गलद्रव्य ही अनुभवता ( भोगता ) है तौभी बाह्य व्याप्यव्यापकभावकर अज्ञानसे पुद्गलकर्मके होनेके अनुकूल अपने रागादि परिणामको करता और पुद्गलकर्मके उदयकर उत्पन्न कीगई जो विषयोंकी समीपता उससे दौड़ी जो अपनी सुखदुःखरूप परिणति उसको भाव्यभावकभावकर अनुभवता (भोगता) जो जीव वह पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है । ऐसें अज्ञानी लोकोंका अनादि संसारसे लेकर प्रसिद्ध हुआ व्यवहार प्रवर्तता है ॥ भावार्थ-पुद्गलकर्मको परमार्थसे पुद्गलद्रव्य ही करता है और पुद्गलकर्मके होनेके अनुकूल अपने रागादिपरिणामोंको जीव करता है उसके निमित्तनैमित्तिक भावको देखकर अज्ञानीके यह भ्रम है कि जीव ही पुद्गलकर्मको करता है । सो अनादि अज्ञानसे प्रसिद्ध व्यवहार है। जबतक जीव पुद्गलका भेदज्ञान नहीं है तबतक दोनोंकी प्रवृत्ति एक सरीखी दीखती है इसकारण जवतक भेदज्ञान न हो तबतक दीखती है वैसा कहता है। श्रीगुरु भेदज्ञान कराके परमार्थ जीवका स्वरूप दिखलाके अज्ञानीके प्रतिभासको व्यवहार कहते हैं ॥४॥