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समयसारः ।......
स खलु जितेंद्रियो जिन इत्येका निश्चयस्तुतिः ॥ ३१॥ अथ भाव्यभावकसंकरदोषपरिहारेण;
जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणइ आदं । तं जिदमोहं साहुं परमट्टवियाणया विंति ॥ ३२॥
यो मोहं तु जित्वा ज्ञानस्वभावाधिकं जानात्यात्मानं ।
तं जितमोहं साधुं परमार्थविज्ञायका विदंति ॥ ३२ ॥ यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवंतमपि दूरत एव तदनुवृत्तेरात्मनो भाव्यस्य व्यावर्त्तनेन हठान्मोहं न्यक्कृत्योपरतसमस्तभाव्यभावकसंकरदोषत्वेनैकत्वे टंकोत्कीर्ण विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षोद्योतितया नित्यमेवांतःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतः सिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन द्रव्यांतरस्वभावभाविभ्यः दोषं परमसमाधिबलेन योसौ जयति सा चैव प्रथमा निश्चयस्तुतिरिति भावार्थः ॥ ३१ ॥ अथ तामेव स्तुति द्वितीयप्रकारेण भाव्यभावकसंकरदोषपरिहारेण कथयति । अथवा उपशमश्रेण्यपेक्षया जितमोहरूपेणाह;-जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणइ आदं यः पुरुषः उदयागतं मोहं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैकाग्र्यरूपनिर्विकल्पसमाधिबलेन जित्वा शुद्धज्ञानगुणेनाधिकं परिपूर्णमात्मानं मनुते जानाति भावयति तं जिदमोहं साहं परमट्टवियाणया विंति तं साधुं जितमोहं रहितमोहं परमार्थविज्ञायका ब्रुवंति कथयऐसा जानना ॥ ३१ ॥
आगे भाव्य भावक संकर दोष दूरकर स्तुति कहते हैं;-[ यः तु] जो मुनि [मोहं] मोहको [जित्वा ] जीतकर [आत्मानं ] अपने आत्माको [ज्ञानखभावाधिकं ] ज्ञानस्वभावकर अन्यद्रव्यभावोंसे अधिक [जानाति] जानता है [ तं साधुं ] उस मुनिको [ परमार्थविज्ञायकाः ] परमार्थंके जाननेवाले [जितमोहं] जितमोह ऐसा [विंदंति ] जानते हैं कहते हैं । टीका-जो मुनि फल देनेकी सामर्थ्यकर प्रगट उद्यरूप होके भावकपनेसे प्रगट हुआ जो मोहकर्म उसे
और जिसकी प्रवृत्ति उसीके अनुसार है ऐसा जो अपना आत्मा भाव्य उसको भेद ज्ञानके बलसे दूर हीसे जुदा करनेसे मोहको जुदा कर तथा तिरस्कार करनेसे जिसमें समस्त भाव्यभावक संकरदोष दूर हो गया है उस भावकर एकपना होनेपर टंकोत्कीर्ण निश्चल एक अपने आत्माको अनुभवता है वह मोहको जीतनेवाला होनेसे जिन कहलाता है । कैसा है आत्मा ? समस्त लोकके ऊपर तैरता, प्रत्यक्ष उद्योतपनेकर नित्य ही अंतरंगमें प्रकाशमान, अविनाशी और आपसे ही सिद्ध हुआ परमार्थरूप भगवान ऐसा जो ज्ञानस्वभाव उससे अन्यद्रव्यके स्वभावकर होनेवाले सब ही अन्यभावोंसे परमार्थकर
१ तदनुकूलस्य ।
२ भेदबलेन ।
९समय."