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समयसारः । पश्यति जगजीवस्य तत्त्वं ततः । इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा व्यक्तं व्यंजितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालंब्यतां ॥ ४२ ॥ जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्नं ज्ञानी जनोनुभवति स्वयमुल्लसंतं । अज्ञानिनो निरवधिप्रविजूंभितोयं मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति ॥ ४३ ॥ नानट्यतां तथापि-"अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः। रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूतिरयं च जीवः ॥४४॥" "इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा जीवाजीवौ स्फुटपेक्षया व्यवहार एव । इति व्याख्यानं निश्चयव्यवहारनयविचारकाले सर्वत्र ज्ञातव्यं । एवमभ्यंतरे यथा मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानानि जीवस्वरूपं न भवंति तथा रागादयोपि शुद्धजीवस्वरूपं न भवंअमर्यादरूप मोह ( अज्ञान ) प्रगट फैलता हुआ क्यों अत्यंत नृत्य करता है ? यह हमको बड़ा अचंभा है तथा खेद है ॥ फिर भी इसका निषेध करते हैं कि मोह नृत्य करता है तो करे तो भी यह ऐसा है-अस्मिन् इत्यादि । अर्थ-यह अनादि कालका बड़ा अविवेकका नृत्य है उसमें वर्णादिमान पुद्गल ही नृत्य करता है अन्य कोई नहीं है। अभेदज्ञानमें पुद्गल ही अनेकप्रकार दीखता है जीव तो अनेक प्रकार नहीं है। यह जीव, रागादिक जो कि पुद्गलसे हुए विकार हैं उनसे विलक्षण शुद्ध चैतन्य धातुमय मूर्ति है । भावार्थ-रागादि चैतन्यविकारको देख ऐसा भ्रम न करना कि ये भी चैतन्य ही हैं क्योंकि चैतन्यकी सब अवस्थाओं में व्यापकर रहें तब चैतन्यके कहे आयं सो ऐसा नहीं है मोक्षअवस्थामें इनका अभाव है । तथा इनका अनुभव भी आकुलतामय दुःखरूप है । चैतन्यका अनुभव निराकुल है वही जीवका स्वभाव है ऐसा जानना ॥ आगे भेदज्ञानकी प्रवृत्तिपूर्वक यह ज्ञाता द्रव्य आप प्रगट होता है ऐसे महिमा कहकर अधिकार पूर्ण करते हैं । उसका कलशरूप काव्य कहते हैं । इत्थं इत्यादि । अर्थ-इसप्रकार ज्ञानरूप करोंतकी कलनाका वारंवार अभ्यास करना उसको नचाकर जीव और अजीव दोनों प्रगटपनेसे जबतक जुदे · न हुए तबतक यह ज्ञाता द्रव्य आत्मा, समस्त प..नों में व्यापकर तथा प्रगट विकासरूप हुई चैतन्यमात्र शक्तिकर अपने आप अतिवेगसे अतिशयसे प्रगट होता हुआ । भावार्थ-जीव अजीव दोनों अनादिकालसे संयोगरूप हैं सो अज्ञानसे एकसरीखे दीखते हैं । वहां भेदज्ञानके अभ्याससे जबतक प्रगट जुदे न हुए अर्थात् जीव कोसे छूट मोक्षको प्राप्त न हुआ तबतक यह ज्ञाताद्रव्य जीव अपनी ज्ञानशक्तिकर समस्त वस्तुओंको जानकर अतिवेगसे आप प्रगट हुआ। यहां ऐसा तात्पर्य है कि सम्यग्दृष्टि होने के बाद जबतक केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता तबतक तो सर्वज्ञके आगमसे उत्पन्न हुए श्रुतज्ञानकर समस्त वस्तुओंका संक्षेप तथा विस्तारसे परोक्षज्ञान होता है उस ज्ञानस्वरूप आत्माका जो अनुभव होता है वही इसका प्रगट होना है । और जब घातिया कर्मों के नाशसे केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है तब सब वस्तुओंको साक्षात् प्रत्यक्ष
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