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समयसारः । घृतमयो न चेत् । जीवो वर्णादिमजीवजल्पनेपि न तन्मयः ॥४०॥" ६७॥ एतदपि स्थितमेव यद्रागादयो भावा न जीवा इति;
मोहणकम्मस्सुदया दु वणिया जे इमे गुणहाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिचमचेदणा उत्ता॥ ६८॥
मोहनकर्मण उदयात्तु वर्णितानि यानीमानि गुणस्थानानि ।
तानि कथं भवंति जीवा यानि नित्यमचेतनान्युक्तानि ॥ ६८॥ मिथ्यादृष्टयादीनि गुणस्थानानि हि पौगलिकमोहकर्मप्रकृतिविपाकपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात् कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन पुद्गल एव न तु जीवः । गुणस्थानानां नित्यमचेतनत्वं चागमाचैतन्यस्वभावव्याप्तस्यात्मनोतिरिक्तत्वेन विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वाच्च प्रसाध्यं । एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्मवर्गगाथात्रयं गतं ॥ ६७ ॥ अथ न केवलं बहिरंगवर्णादयो शुद्धनिश्चयेन जीवस्वरूपं न भवंति अभ्यंतरमिथ्यात्वादिगुणस्थानरूपरागादयोपि न भवंतीति स्थितं;-मोहणकम्मस्सुदया दु वण्णिदा जे इमे गुणहाणा निर्मोहपरमचैतन्यप्रकाशलक्षणपरमात्मतत्त्वप्रतिपक्षभूतानाद्यविद्याकंदलीकंदायमानसंतानागतमोहकर्मोदयात्सकाशात् यानीमानि वर्णितानि कथितानि गुणस्थानानि । तथा चोक्तं "गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा" ते कह हवंति जीवा तानि कथं भवंति जीवा न कथमपि । कथंभूतानि, ते णिचमचेदणा उत्ता यद्यप्यशुद्धतो ज्ञानघन है ऐसा जानना ॥ ६७ ॥ ___ आगे कहते हैं कि जैसे वर्णादिकभाव जीव नहीं हैं उसीतरह यह भी स्थितहुआ कि रागादिकभाव भी जीव नहीं हैं;-[ यानि इमानि] जो ये [गुणस्थानानि] गुणस्थान हैं वे [ मोहनकर्मण उदयात् तु ] मोहकर्मके उदयसे होते हैं ऐसे [ वर्णितानि ] सर्वज्ञके आगममें वर्णन कियेगये हैं [ तानि] वे [जीवाः ] जीव [कथं ] कैसे [भवंति ] हो सकते हैं ? नहीं होसकते क्योंकि [ यानि ] जो [नित्यं ] हमेशा [अचेतनानि ] अचेतन [उक्तानि ] कहे हैं । टीका-जो ये मिथ्यादृष्टिआदि गुणस्थान हैं वे पुद्गलरूप मोहकर्मकी प्रकृतिके उदय होनेसे होते हैं इसलिये नित्य ही अचेतन हैं क्योंकि जैसा कारण होता है उसीके अनुसार कार्य होता है। जैसे जौसे जो होते हैं वे यव ही हैं इसन्यायकर वे पुद्गल ही हैं जीव नहीं हैं। यहां गुणस्थानोंको नित्य अचेतनपना आगमसे सिद्ध है और चैतन्यस्वभावकर व्याप्त आत्मासे भिन्नपनेकर भेद 'ज्ञानी पुरुषोंकर स्वयं प्राप्यमान है' इस हेतुसे सिद्ध करना। चैतन्यमात्र आत्माके अनुभवसे ये बाह्य हैं इसलिये अचेतन ही हैं । इसीतरह राग द्वेष मोह प्रत्यय कर्म नोकर्म वर्ग वर्गणा स्पर्धक अध्यात्मस्थान अनुभागस्थान योगस्थान बंधस्थान उदयस्थान मार्गणास्थान स्थितिबंधस्थान संक्लेशस्थान विशुद्धिस्थान संयमलब्धिस्थान ये सभी पुद्गलकर्मपूर्वक होनेसे नित्य अचेतनपनेकर पुद्गल ही हैं जीव नहीं हैं ऐसा