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समयसारः ।
एव न तु जीवः । नामकर्मप्रकृतीनां पुद्गलमयत्वं चागमप्रसिद्धं दृश्यमानशरीराकारादिमूर्त्त कार्यानुमेयं च । एवं गंधरसस्पर्शरूपशरीर संस्थानसंहननान्यपि पुद्गलम यनामकर्मप्रकृति निर्वृत्तत्वे सति तदव्यतिरेकाज्जीवस्थानैरेवोक्तानि । ततो न वर्णादयो जीव इति निश्चयसिद्धांतः । “निर्वर्त्यते येन यदत्र किंचित्तदेव तत्स्यान्न कथं च नान्यत् । रुक्मेण निर्वृत्तमिहासिकोशं पश्यंति रुक्मं न कथंचनासिं ॥ ३८ ॥ " " वर्णादिसामग्र्यमिदं विदंतु निर्माणमेकस्य हि पुलस्य । ततोत्विदं पुद्गल एव नात्मा यतः स विज्ञानघनस्ततोन्यः ॥ ३९ ॥ ॥ ६५ ॥ ६६ ॥
शेषमन्यद्व्यवहारमात्रं ;
पज्जन्तापज्जन्त्ता जे सुहुमा वादरा य जे चेव । देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता ॥ ६७ ॥ पर्याप्त पर्याप्ता ये सूक्ष्मा बादराश्च ये चैव ।
देहस्य जीवसंज्ञाः सूत्रे व्यवहारतः उक्ताः ॥ ६७ ॥ यत्किल बादरसूक्ष्मैकेंद्रियद्वित्रिचतुःपंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्ता इति शरीरस्य संज्ञाः सूत्रे र्वोक्ताभिर्निर्वर्त्तितानि चतुर्दशजीवस्थानानि निश्चयनयेन कथं जीवा भवंति ? न कथमपि । तथाहि-यथा रुक्मेण करणभूतेन निर्वृत्तमसिकोशं रुक्मैव भवति तथा पुद्गलमयप्रकृतिभिर्निष्पन्नानि जीवस्थानानि पुद्गलद्रव्य स्वरूपाण्येव भवंति न च जीवस्वरूपाणि । तथा तेनैव जीवस्थानदृष्टांतेन तदाश्रिता वर्णादयोपि पुद्गलस्वरूपा भवंति न च जीवस्वरूपा इत्यभिप्रायः ॥ ६५ ॥ ६६ ॥ अथ — ग्रंथांतरे पर्याप्तापर्याप्तबादरसूक्ष्मजीवाः कथ्यंते तत्कथं घटत इति पूर्वपक्षे परिहारं ददाति ; —— पज्जन्तापज्जन्त्ता जे सुहुमा बादरा य जे चैव पर्याप्तापर्याप्ता ये जीवाः
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उनकर अनुमानप्रमाणसे ही सिद्ध है । इसीतरह गंध रस स्पर्श रूप शरीर संस्थान संहनन-ये भी नामकर्मकी प्रकृतियोंकर किये हुए हैं इसलिये उस पुद्गलसे अभेदरूप हैं इसीकारण जीवस्थान पुद्गलमय कहने चाहिये । इसकारण ये वर्णादिक जीव नहीं हैं ऐसा निश्चयनयका सिद्धांत है | यहां इसी अर्थका कलशरूप काव्य है । निर्वर्त्यते इत्यादि । अर्थ — जिस वस्तुकर जो कुछ भाव बने वह भाव वस्तु ही है कुछ अन्य वस्तु नहीं है । जैसे रूपे सोंनेकर खड्गका ( तलवारका ) कोश वना उसे लोक रूपा सोना ही देखते हैं खड्गको तो किसीतरहभी नहीं देखते ॥ भावार्थ - वर्णादिक पुद्गलसे वने हैं पुद्गलही हैं जीव नहीं हैं | अब दूसरा कहते हैं । वर्णादि इत्यादि । अथ —भो ज्ञानी जनो ! ये वर्णादिक गुणस्थानपर्यंत भाव हैं वे सभी एक पुद्गलके रचे हैं ऐसा तुम जानो इसलिये ये पुद्गल ही हों आत्मा न हों । क्योंकि आत्मा तो विज्ञानघन है ज्ञानका पुंज है । इसकारण इन वर्णादिकोंसे अन्य ही है || ६५/६६ ||
आगे कहते हैं कि इस ज्ञानघन आत्म के सिवाय अन्य कुछ हैं उनको जीव कहना सो सब ही व्यवहारमात्र है; - [ ये ] जो [ पर्याप्तापर्याप्ताः ] पर्याप्त अपर्याप्त,