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समयसारः।
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अथ कर्तृकर्माधिकारः ॥२॥
अथ जीवाजीवावेव कर्तृकर्मवेषण प्रविशतः ॥ एकः कर्ता चिदहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी इत्यज्ञानां शमयदभितः कर्तृकर्मप्रवृत्तिं । ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदात्तमत्यंतधीरं साक्षात्कुर्वनिरुपधिपृथग्द्रव्यनि सि विश्वं ॥४६॥
जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोहपि । अण्णाणी तावदु सो कोधादिसु वदे जीवो ॥ ६९॥ कोधादिसु वदंतस्स तस्स कम्मस्स संचओ होदी। जीवस्सेवं बंधो भणिदो खलु सव्वदरसीहिं ॥ ७॥ यावन्न वेत्ति विशेषांतरं त्वात्मास्रवयोर्द्वयोरपि । अज्ञानी तावत्स क्रोधादिषु वर्त्तते जीवः ॥ ६९॥ क्रोधादिषु वर्तमानस्य तस्य कर्मणः संचयो भवति ।
जीवस्यैवं बंधो भणितः खलु सर्वदर्शिभिः ॥ ७० ॥ यथायमात्मा तादात्म्यसिद्धसंबंधयोरात्मज्ञानयोरविशेषाद्भेदमपश्यन्नविशंकमात्मतया
अथ पूर्वोक्तजीवाधिकाररंगभूमौ जीवाजीवावेव यद्यपि शुद्धनिश्चयेन कर्तृकर्मभावरहितौ तथापि व्यवहारनयेन कर्तृकर्मवेषेण शृंगारसहितपात्रवत्प्रविशत इति दंडकान्विहायाष्टाधिकसप्ततिगाथापर्यंतं नवभिः स्थलैर्व्याख्यानं करोतीति पुण्यपापादिसप्तपदार्थपीठिकारूपेण तृतीयाधिकारे समुदाय पातनिका । अथवा जो खलु संसारत्थो जीवो इत्यादिगाथात्रयेण पुण्यपापा__ अब कर्तृकर्माधिकार कहते हैं—दोहा-“कर्ताकर्मविभावकू, मेंटि ज्ञानमय होय । कर्म नाशि शिवमें वसे, तिन्हें नमूं मद खोय ॥ १ ॥ अब टीकाकारके वचन कहते हैं कि, जीव अजीव दोनों एक कर्ता कर्मका वेषकर प्रवेश करते हैं । जैसे दो पुरुष आपसमें कुछ एक स्वांगकर नृत्यके अखाड़े में प्रवेश करें उसीतरह यहां अलंकारजानना । उसमें पहले उस स्वांगको ज्ञान यथार्थ जान लेता है उसकी महिमाका काव्य कहते हैं-एकः इत्यादि । अर्थ-ज्ञानज्योति प्रगट स्फुरायमान होती है । क्या करती हुई ? जो अज्ञानी जीवोंके ऐसी कर्ता कर्मकी प्रवृत्ति है कि इस लोकमें मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा तो एक कर्ता हूं और ये क्रोधादिकभाव मेरे कर्म हैं इसतरह कर्ता कर्मकी प्रवृत्तिको यह ज्ञानज्योति शमन करती ( मिटाती) हुई । जो ज्ञानज्योति उत्कृष्ट उदात्त है किसीके आधीन नहीं है, अत्यंत धीर है अर्थात् किसीतरह आकुलतारूप नहीं है, और दूसरेकी सहायताके विना जुदे जुदे द्रव्योंका प्रकाशित करनेका जिसका स्व. भाव है इसीकारण समस्त लोकालोकको साक्षात् ( प्रत्यक्ष ) करती है जानती है। भावार्थ-ऐसा ज्ञानस्वरूप आत्मा परद्रव्य तथा परभावोंके कर्ताकर्मपनेके अज्ञानको