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समयसारः ।
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भावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु सातासातरूपेणाभिव्याप्तसमस्ततीव्र - मंदत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभावो जीवः सुखदुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु मज्जितावदुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयं जीवः कार्त्स्यतः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खल्वर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोगो जीवः कर्मसंयोगात्खद्वाशायिनः पुरुषस्येवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वादिति । इह खलु पुद्गल - भिन्नात्मोपलब्धि प्रति विप्रतिपन्नः साम्नैवैवमनुशास्यः । " विरम किमपरेणाकार्य कोलाहलेन स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकं । हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधानो ननु कि - रागादयस्तु विभावाः स्फटिकोपाधिवत् ततस्तेषां निर्विकारशुद्धात्मानुभूतिबलेन पृथक्कर्तुं शक्यते इति । यदप्युक्तमष्टकाष्ठसंयोगखद्वावदष्ट कर्मसंयोग एव जीवस्तदप्यनुचितं अष्टकर्मसंयोगात् भिन्नः शुद्धजीवोस्तीति पक्षवचनं अष्टकाष्ठसंयोगखद्वाशायिनः पुरुषस्येव परमसमाधिस्थ पुरुषैरष्टकर्मसंयोगात् पृथग्भूतस्य शुद्धबुद्धैकस्वभावजीवस्योपलब्धेरिति दृष्टांतसहित हेतुः । किं च देहात्मनोरत्यंतं स्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानियोंकर स्वयं प्राप्त है वे प्रत्यक्ष आप अनुभवते हैं । ७ । अर्थक्रियामें समर्थ कर्मका संयोगभी जीव नहीं है क्योंकि "जैसे आठ काठके टुकड़ोंरूप खाटका सोनेवाला पुरुष अन्य है" उसीतरह कर्मसंयोगसे जुदा अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानियोंकर स्वयं प्राप्त है वे आप प्रत्यक्ष अनुभवते हैं । ८ । इसीतरह अन्य कोई दूसरे प्रकार कहें वहां भी यही युक्ति जानना ॥ भावार्थ — चैतन्यस्वभावरूप जीव सब परभावोंसे जुदा भेद ज्ञानियोंके अनुभवगोचर है इस कारण जिसतरह अज्ञानी मानते हैं उसतरह नहीं है । अब यहां पर पुगलसे भिन्न जो आत्माकी उपलब्धि उसको अन्यथा ग्रहण करनेवाला पुद्गलको ही आत्मा जाननेवाला जो पुरुष उसको हितरूप मिलापकी बात कहकर समभाव से ही उपदेश कहना चाहिये ऐसा श्लोकमें कहते हैं । विरम इत्यादि । अर्थ — हे भव्य तुझे निकम्मे कोलाहलकरनेसे क्या लाभ है उस कोलाहलसे तू विरक्त हो और एक चैतन्य मात्र वस्तुको आप निश्चल लीन होके देख | इस प्रकार छह महीना अभ्यासकर । ऐसा करनेसे अपने हृदयसरोवर में जिसका तेज प्रताप प्रकाश पुद्गलसे भिन्न है ऐसे आत्माकी क्या प्राप्ति नहीं हो सकेगी अवश्य होगी | भावार्थ — जो अपने स्वरूपका अभ्यास करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य होवे परवस्तुकी प्राप्ति तो नहीं होसकती । अपना स्वरूप तो मौजूद है परंतु भूल रहा है सो चेतकर देखे तो पास ही है । यहां छह महीनेका अभ्यास कहा सो ऐसा नहीं समझना कि इतनेमें ही होवे इसका होना तो अंतर्मुहूर्तमात्रमें ही है परंतु शिष्यको बहुत कठिन मालूम पड़े तब उसका निषेध है । यदि बहुतकाल समझने में लगेगा तो छह महीने से अधिक नहीं लगेगा । इसलिये अन्य निष्प्रयोजन कोलाहलको छोड़ इसमें लगनेसे शीघ्र रूपकी प्राप्ति