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समयसारः ।
१०३ दयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबंधस्थानसंक्लेशस्थानविशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानजीवस्थानगुणस्थानान्यपि व्यवहारतोर्हदेवानां प्रज्ञापनेति निश्चयतो नित्यमेवामूर्त्तखभावस्योपयोगगुणेनाधिकस्य जीवस्य सर्वाण्यपि न संति तादात्म्यलक्षणसंबंधाभावात् ॥५८॥५९॥६०॥
भिप्रायेण निश्चयज्ञा व्युपदिशति कथयंतीति नास्ति व्यवहारविरोधः । इति दृष्टांतदाष्टीताभ्यां व्यवहारनयसमर्थनरूपेण गाथात्रयं गतं ॥ ५८ ॥ ५९॥६० ॥ एवं शुद्धजीव एवोपादेय मार्ग आकाशके प्रदेशोंका विशेष है सो मार्ग तो कोई लूटता नहीं है । उसीतरह जीवमें बंधपर्यायकर अवस्थित जो कर्मका और नोकर्मका वर्ण उसे देखकर जीवमें स्थित होनेसे उसका उपचार कर जीवका यह वर्ण है ऐसे व्यवहारसे भगवान् अरहंतदेव प्रज्ञापन करते हैं प्रगट करते हैं तो भी निश्चयसे जीव नित्य ही अमूर्तस्वभाव है और उपयोग गुणकर अन्य द्रव्यसे अधिक है भिन्न है इसलिये उसके कोई वर्ण नहीं है । इसीतरह गंध रस स्पर्श रूप शरीर संस्थान संहनन राग द्वेष मोह प्रत्यय कर्म नोकर्म वर्ग वर्गणा स्पर्धक अध्यात्मस्थान अनुभागस्थान योगस्थान बंधस्थान उदयस्थान मार्गणास्थान स्थितिबंधस्थान संक्लेशस्थान विशुद्धिस्थान संयमलब्धिस्थान जीवस्थान गुणस्थान-ये सभी व्यवहारसे जीवके अरहंतदेवने कहे हैं तौभी निश्चयसे जीव नित्य ही अमूर्तस्वभाव है-और उपयोगगुणकर अन्यसे अधिक है भिन्न है इसलिये उसके ये सब नहीं हैं क्योंकि इन वर्णादिभावोंके और जीवके तादात्म्यलक्षणसंबंधका अभाव है ॥ भावार्थ-ये जो वर्णसे लेकर गुणस्थानपर्यंत भाव कहे हैं वे सिद्धांत में जीवके कहे हैं सो व्यवहारनयकर कहेगये हैं निश्चयनयकर जीवके नहीं हैं। क्योंकि जीव तो परमार्थकर उपयोगस्वरूप है। यहां ऐसा जानना कि पहले व्यवहारनयको असत्यार्थ कहा है वहां ऐसा नहीं समझना कि सर्वथा असत्यार्थ है कथंचित् असत्यार्थ जानना । क्योंकि जब एक द्रव्यको जुदा पर्यायोंसे अभेदरूप असाधारण गुणमात्रको प्रधानकर कहा जाय तब परस्पर द्रव्योंका निमित्तनैमित्तिकभाव, तथा निमित्तसे हुए पर्याय ये सब गौण हो जाते हैं उस एक अभेद्रव्यकी दृष्टिमें उनका प्रतिभास नहीं होता । इसलिये वे सव उस द्रव्यमें नहीं हैं। इसतरह कथंचित् निषेध किया जाता है। यदि उस द्रव्यमें कहा जाय तो व्यवहारनयसे कहसकते हैं । ऐसा नयविभाग है । सो यहां शुद्धद्रव्यकी दृष्टिकर कथन है इसलिये उन सभीको व्यवहारनयकर जीवका कहा है ऐसा सिद्ध किया है । और निमित्तनैमित्तिकभाषकी दृष्टिकर देखा जाय तो कथंचित् सत्यार्थ भी कहसकते हैं। यदि सर्वथा असत्यार्थ ही कहें तो सब व्यवहारका लोप होजाय तब परमार्थका भी लोप हो जायगा । इसलिये जिनदेवका उपदेश स्याद्वादरूप ही समझना सम्यग्यज्ञान है, सर्वथा एकांत करना मिथ्यात्व है ॥ ५८ । ५९६०॥