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समयसारः ।
थिना विवेचकजनसमर्पितसर्वस्वेन सकलमपि लोकालोकं कवलीकृत्यात्यंतसौहित्यमंथरेणेव सकलकालमेव मनागप्यविचलितानन्यसाधारणतया स्वभावभूतेन स्वयमनुभूयमानेन चेतनागुणेन नित्यमेवांतःप्रकाशमानत्वात् चेतनागुणश्च स खलु भगवानमला लोक इहैकष्टंकोत्कीर्णः प्रत्यग्ज्योतिर्जीवः " सकलमपि विहायाह्नाय चिच्छक्तिरिक्तं स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रं । इममुपरि चरंतं चारुविश्वस्य साक्षात् कलयतु परमात्मात्मानमा - त्मन्यनंतं ॥ ३५ ॥ चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयं । अतोतिरिक्ताः सर्वेपि भावाः पौगलिका अमी ॥ ३६ ॥ " ॥ ४९ ॥
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जीवस्स णत्थि वण्णो णवि गंधो णवि रसो णवि य फासो । विरूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं ॥ ५० ॥
र्मोहनिरंजननिजशुद्धात्मसमाधिसंजातसुखामृतरसानुभूतिलक्षणे गिरिगुहागहरे स्थित्वा सर्वतापर्येण ध्यातव्य इति । एवं सूत्रगाथा गता ॥ ४९ ॥ अथ बहिरंगे वर्णाद्यभ्यंतरे रागादिभावाः पौद्गलिकाः शुद्धनिश्चयेन जीवस्वरूपं न भवतीति प्रतिपादयति ; — वर्णगंधरसस्पर्शास्तु रूपअंतरंगमें प्रकाशमान है इसकारण चेतनगुणवाला है । जो चेतनागुण समस्त विप्रतिपत्तियोंका ( जीवको अन्य प्रकार माननेका ) निषेध करनेवाला है, जिसने अपना सर्वस्व भेदज्ञानी जीवोंको सोंपदिया है, जो समस्त लोकालोकको ग्रासीभूत कर अत्यंत सुखी हो उस तरह सदा किंचित्मात्र भी चलायमान नहीं होता और अन्य द्रव्यसे साधारण नहीं है इसलिये असाधारण स्वभावभूत है । ऐसे चैतन्यरूप परमार्थस्वरूप जीव है । जिसका प्रकाश निर्मल है ऐसा यह भगवान् इस लोक में टंकोत्कीर्ण भिन्न ज्योतीरूप विराजमान हैं | अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहकर इसके अनुभवकी प्रेरणा करते हैं । सकल इत्यादि । अर्थ- हे भव्य आत्माओ अपने एक केवल आत्माको आत्म अभ्यास करो अनुभव करो। ऐसा अनुभव करो कि चिच्छक्तिसे रहित अन्य सकल भावोंको मूलसे छोडकर और अच्छीतरह अपने चिच्छक्तिमात्र भावको अवगाहनकर यह आत्मा समस्त पदार्थसमूहरूप लोकके ऊपर प्रवर्त रहा है, उसका साक्षात् अनुभव करो । जो आत्मा अनंत तथा अविनाशी है ॥ भावार्थ — यह आत्मा परमार्थसे समस्त अन्य भावोंसे रहित चैतन्य शक्तिमात्र है उसके अनुभवका अभ्यास करो ऐसा उपदेश है । आगे चिच्छक्तिसे अन्य जो भाव हैं वे सब पुद्गलद्रव्यसंबंधी हैं ऐसी आगेके गाथाकी सूचनिकारूप श्लोक कहते हैं - चिच्छक्ति इत्यादि । अर्थ-चैतन्य शक्तिकर व्याप्त जिसका सर्वस्वसार है ऐसा यह जीव इतने मात्र है इस चिच्छक्तिसे शून्य जो भाव हैं वे सभी पुद्गलजन्य हैं वे पुद्गलके ही हैं ॥ ४९ ॥
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ऐसे उन भावोंका व्याख्यान छह गाथाओं में करते हैं; - [ जीवस्य ] जीवमें [ वर्णः ] रूप [ नास्ति ] नहीं है [ नापि गंध: ] गंध भी नहीं है [ रसः अपि