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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
ध्यमानः कथंचनापि प्रतिबुध्य निजकरतलविन्यस्त विस्मृतचामीकरावलोकनन्यायेन परमेश्वरमात्मानं ज्ञात्वा श्रद्धायानुचर्य च सम्यगेकात्मारामो भूतः स खल्वहमात्मात्मप्रत्यक्षं चिमात्रं ज्योतिः । समस्त क्रमाक्रमप्रवर्त्तमानव्यावहारिकभावैश्चिन्मात्राकारेणाभिद्यमानत्वादेको नारकादिजीवविशेषाजीवपुण्यपापात्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षलक्षणव्यावहारिकनवतत्त्वे
तत्रैव निजात्मनि वीतरागस्वसंवेदननिश्चलरूपं चारित्रमिति निश्चयरत्नत्रयपरिणतजीवस्य कीदृशं स्वरूपं भवतीत्यावेदयन्सन् जीवाधिकारमुपसंहरति; अहं अनादिदेहात्मैक्यभ्रांत्याज्ञानेन पूर्वमप्रतिबुद्धपि करतलविन्यस्तसुप्तविस्मृतपश्चान्निद्राविनाशस्मृतचामीकरावलोकनन्यायेन परमगुरुप्रसादेन प्रतिबुद्धो भूत्वा शुद्धात्मनि रतो यः सोहं वीतरागचिन्मात्रं ज्योतिः । पुनरपि कथंभूतः । इक्को यद्यपि व्यवहारेण नरनारकादिरूपेणानेकस्तथापि शुद्ध निश्चयेन टंकोत्कीर्णज्ञाय केकस्वभावत्वादेकः। खलु स्फुटं । पुनरपि किंरूपः । सुद्धो व्यावहारिकनवपदार्थेभ्य: शुद्धनिश्चयनयेन भिन्नः, अथवा रागादिभावेभ्यो भिन्नोहमिति शुद्धः । पुनरपि किंविशिष्टः ।
परिणत हुआ आत्मा वह ऐसा जानता है कि [ अहं ] मैं [ एक: ] एक हूं [ शुद्धः ] शुद्ध हूं [ सदा अरूपी खलु ] निश्चयकर सदा काल अरूपी हूं [ अन्यत् ] अन्य परद्रव्य [ परमाणुमात्रमपि ] परमाणुमात्र भी मम किं - चित् ] मेरा कुछ [नापि अस्ति ] नहीं लगता है यह निश्चय है । टीका - सत्यार्थ प से निश्चयकर ऐसा है कि यह आत्मा अनादि कालसे लेकर मोहरूपी अज्ञानसे उन्मत्तपनेकर अत्यंत अप्रतिबुद्ध ( अज्ञानी ) था सो इसे अनुरागी गुरुने हमेशा समझाया तब किसीतरह बड़े भाग्यसे समझा सावधान हुआ । उस समय " जैसे किसीके हाथकी मुट्ठीमें पहले सुवर्ण रक्खा हो । उसे भूलकर फिर यादकर देखे” इस न्यायकर अपने परमेश्वर ( सर्वसामर्थ्य के धारण करनेवाले ) आत्माको भूल रहा था सो उसे जान श्रद्धानकर और उसीका आचरणरूप उससे तन्मय होकर अच्छीतरह आत्माराम हुआ । तब ऐसा जाना कि मैं चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा हूं सो मैं अपनेही अनुभवसे प्रत्यक्ष जानता हूं - समस्त क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवर्तते हुए जो व्यवहारिक भाव उनसे चिन्मात्र आकारकर तो भेदरूप नहीं हुआ इसलिये मैं एक हूं । तथा नर नारक आदि जीवके विशेष, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्षस्वरूप जो व्यावहारिक नौ तत्व उनसे टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावरूप भावकर अत्यंत जुदापना होनेसे मैं शुद्ध हूं । चिन्मात्रपनेसे सामान्य विशेष उपयोगको उलंघन नहीं करनेसे मैं दर्शन ज्ञानमय हूं । स्पर्श रस गंध वर्ण जिसको निमित्त हैं ऐसे संवेदनरूप परिणमा हूं तौभी स्पर्श आदिरूप सदाआपही परिणमनेसे वास्तव में सदा ही अरूपी हूं । ऐसें सबसे जुदे स्वरूपको अनुभवता हुआ मैं प्रतापसहित हूं । ऐसे प्रतापरूप हुए मुझमें बाह्य अनेकप्रकार स्वरूपकी संपदाकर समस्त परद्रव्य स्फुरायमान हैं तो भी परमाणु