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समयसारः । नाकुलमात्मानं कलयन् भगवानात्मैवावबुध्यते । यत्किलाहं खल्वेकः ततः संवेद्यसंवेदकभावमात्रोपजातेतरेतरसंवलनेपि परिस्फुटस्वदमानस्वभावभेदतया धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवांतराणि प्रति निर्ममत्वोस्मि । सर्वदैवात्मैकत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात् इतीत्थं ज्ञेयभावविवेको भूतः। “इति सति सह सर्वैरन्यभावैविवेके स्वसमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकं । प्रकटितपरमार्थैर्दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्तः ॥ ३१ ॥" ॥ ३७॥ अथैवं दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतस्यात्मनः कीदृक् स्वरूपसंचेतनं भवतीत्यावेदयन्नुपसंहरति:
अहमिको खलु सुद्धो दसणणाणमइओ सदारूवी। णवि अस्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमित्तंपि ॥ ३८ ॥
अहमेकः खलु शुद्धो दर्शनज्ञानमयः सदारूपी ।
नाप्यस्ति मम किंचिदप्यन्यत्परमाणुमात्रमपि ॥ ३८॥ यो हि नामानादिमोहोन्मत्ततयात्यंतमप्रतिबुद्धः सन् निर्विण्णेन गुरुणानवरतं प्रतिबोतं शुद्धात्मभावनास्वरूपं परद्रव्यनिर्ममत्वं समयस्य शुद्धात्मनो विज्ञायकाः पुरुषा ब्रुवंति कथयंतीति । किंच इदमपि परद्रव्यनिर्ममत्वं यत्पूर्व भणितं स्वसंवेदनज्ञानमेव प्रत्याख्यानं तस्यैव विशेषव्याख्यानं ज्ञातव्यं ।। ३७ ॥ इति गाथाद्वयं गतं । एवं गाथाचतुष्टयसमुदायेन सप्तमस्थलं समाप्तं । अथ शुद्धात्मैवोपादेय इति श्रद्धानं सम्यक्त्वं तस्मिन्नेव शुद्धात्मनि स्वसंवेदनं सम्यग्ज्ञानं उपयुक्त हुआ परमार्थसे अनाकुल हो उसतरह सब आकुलतासे रहित होकर एक आत्माका ही अभ्यास करता है सो आत्माकर आत्मा ही जाना जाता है कि मैं प्रगट निश्चयकर एक ही हूं। इसलिये ज्ञेय ज्ञायक भावमात्रसे उत्पन्न जो परद्रव्योंसे परस्पर मिलना उसके होनेपर भी प्रगट स्वादमें आताहुआ जो स्वभावका भेद उसपनेकर धर्म अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, अन्यजीव-उनके प्रति मैं निर्मम हूं। क्योंकि सदा काल ही अपनेमें एकपनेकर प्राप्त होनेसे पदार्थों की ऐसी ही व्यवस्था है कि अपने स्वभावको कोई नहीं छोड़ता । ऐसे अनुभव करनेसे ज्ञेयभावोंसे भेदज्ञान हुआ कहा जाता है। यहांपर इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहा है। इति सति इत्यादि । अर्थ-इसतरह पूर्वकथितरीतिसे भावकभाव और ज्ञेयभावोंसे भेदज्ञान होनेसे सभी अन्यभावोंसे जब भिन्नता हुई तब यह उपयोग आपही अपने एक आत्माको ही धारता हुआ । और जिनका परमार्थ प्रगट हुआ है ऐसे जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र उनकर जिसने परिणमन किया है ऐसा होता हुआ अपने आत्मारूपी बाग (क्रीडावन) में प्रवृत्ति करता है अन्य जगह नहीं जाता। भावार्थ-सब परद्रव्योंसे तथा उनसे उत्पन्नहुए भावोंसे जब भेद जाना तब उपयोगकोरमने के लिये अपना आत्मा ही रहा दूसरा ठिकाना नहीं रहा । इसतरह दर्शन ज्ञान चारित्रसे एकरूप हुआ आत्मामें ही रमण करता है। ऐसा जानना ॥३७॥ ___ आगे इसतरह दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप परिणत हुए आत्माके स्वरूपका संचेतन कैसा होता है ऐसा कहते हुए आचार्य इस कथनको संकोचते हैं;-जो दर्शन ज्ञान चारित्ररूप