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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । न्यत्परमाणुमात्रमप्यात्मीयत्वेन प्रतिभाति । यद्भावकत्वेन ज्ञेयत्वेन चैकीभूय भूयो मोहमुद्भावयति खरसत एवापुनःप्रादुर्भावाय समूलं मोहमुन्मूल्यं महतो ज्ञानोद्योतस्य प्रस्फुरित्वात् । “मजंतु निर्भरममी सममेवं लोका आलोकमुच्छलति शांतरसे समस्ताः । आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीभरेण प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिंधुः ॥ ३२॥" ॥ ३८॥
इति श्रीसमयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पूर्वरंगः समाप्तः। पि । इत्थंभूतस्य सतः नैवास्ति ममान्यत्परमाणुमात्रमपि पस्द्रव्यं किमपि । यदेकत्वेन रंजकत्वेन वा पुनरपि मम मोहमुत्पादयति । कस्मात् ? परमविशुद्धज्ञानपरिणतत्वात् ॥ ३८ ॥ __इति समयसारव्याख्यायां शुद्धात्मानुभूतिलक्षणायां तात्पर्यवृत्तौ स्थलसप्तकेन जो पस्सदि
अप्पाणमित्यादि सप्तविंशतिगाथा तदनंतरमुपसंहारसूत्रमेकमिति समुदायेनाष्टाविंशतिगाथाभिर्जीवाधिकारः समाप्तः । इति प्रथमरंगः । श्रृंगार, हास्य, रौद्र, करुणा, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत-ये आठ जो रस हैं वे लौकिकरस हैं। नाटकमें इनका ही अधिकार है । नवमां शांतिरस है वह अलौकिक है । सो नृत्यमें उसका अधिकार नहीं है। इन रसोंके स्थायीभाव, सात्त्विकभाव, अनुभाविभाव, व्यभिचारिभाव और इनकी दृष्टि आदिका वर्णन रसग्रंथों में है वहांसे जानलेना । तथा सामान्यपनेसे रसका यह स्वरूप है कि ज्ञानमें जो ज्ञेय आया उससे ज्ञान तदाकार होजाय उससे पुरुषका भाव लीन होजाय अन्य ज्ञेयकी इच्छा न रहे वह रस है । सो नृत्यकरनेवाले नृत्यमें आठरसका रूप दिखलाते हैं और इनका वर्णन जव कवीश्वर करें तब अन्य रसको अन्य रसके समान कर भी वर्णन करते हैं तब अन्यरसका अन्यरस अंगभूत होनेसे तथा रसोंके अन्यभाव अंग होनेसे रसवत् आदि अलंकारकर नृत्यके रूपसे वर्णन किया जाता है । इसजगह पहले रंगभूमिस्थल कहा, वहां देखनेवाला तो सम्यग्दृष्टिपुरुष है और अन्य मिथ्यादृष्टिपुरुषोंकी सभा है उनको दिखलाते हैं । नृत्य करनेवाले जीव अजीव पदार्थ हैं और दोनोंका एकपना, कर्ताकर्मपना आदि उनके स्वांग हैं । उनमें परस्पर अनेकरूप होते हैं वे आठरसरूप होके परिणमते हैं यही नृत्य है । वहां सम्यग्दृष्टि देखनेवाला जीव अजीवके भिन्नस्वरूपको जानता है वह तो इन सब स्वांगोंको कर्मकृत जान शांतरसमें ही मग्न है और मिथ्यादृष्टि जीव अजीवका भेद नहीं जानते इसलिये इन स्वांगोंको सच्चा जान इनमें लीन हो जाते हैं। उनको सम्यग्दृष्टि यथार्थ दिखलाय उनका भ्रम मेंट शांतरसमें उन्हें लीनकर सम्यग्दृष्टि करता है। उसकी सूचनारूप रंगभूमिके अंतमें आचार्यने "मजंतु” इत्यादि श्लोक रचा है वह आगे जीव अजीवका स्वांगवर्णन करेंगें उसकी सूचनारूप है ऐसा आशय मालूम होता है । सो यहांतक तो रंगभूमिका वर्णन किया । दोहा-"नृत्यकुतूहल तत्त्वको, मरियवि देखो धाय । निजानंद रसकों छको, आन सवै छिटकाय ॥" ॥ ३८ ॥ इस प्रकार जीवाजीवाधिकारमें पूर्वरंग समाप्त हुआ।