________________
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
नंतो बहवो बहुधा परमप्यात्मानमिति प्रपंति । नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसानमेव जीवस्तथाविधाध्यवसानात् अंगारस्येव कार्यादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । अनाद्यनंतपूर्वापरीभूतावयवैकसंसरणक्रियारूपेण क्रीडत्कर्मैव जीवः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । तीव्रमंदानुभयभिद्यमानदुरंतरागरसनिर्भनिषेधमुख्यत्वेन अप्पाणमयाणंता इत्यादिगाथामादिं कृत्वा पाठक्रमेण गाथादशकपर्यंतं व्याख्यानं करोति । तत्र गाथादशकमध्ये परद्रव्यात्मवादे पूर्वपक्षमुख्यत्वेन गाथापंचकं तदनंतरं परिहारमुख्यत्वेन सूत्रमेकं । अथाष्टविधं कर्म पुद्गलद्रव्यं भवतीति कथनमुख्यत्वेन सूत्रमेकं । ततश्च व्यवहारनयसमर्थनद्वारेण गाथात्रयं कथ्यत इति समुदायपातनिका । तद्यथा । अथ देहरागादिपरद्रव्यं निश्चयेन जीवो भवतीति पूर्वपक्षं करोति; - अप्पाणमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई आत्मानमजानंतः मूढास्तु परद्रव्यमात्मानं वदंतीत्येवंशीलाः केचन परात्मवादिनः जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूविंति यथांगारात् काय भिन्नं नास्ति तथा रागादिभ्यो भिन्नो जीवो नास्तीति रागाद्यध्यवसानं कर्म च जीवं वदंतीति । अथ अवरे अज्झवसाणेसु तिब्वमंदाणुभावगं जीवं मण्णंति अपरे केचनैकांतवादिनः रागाद्यध्यवसानेषु तीव्रमंदतारतम्यानुभावस्वरूपं शक्तिमाहात्म्यं
८०
है । कैसा है ? जीवअजीव के स्वांगको देखनेवाले महान पुरुषोंको जीव देखनेवाली बड़ी उज्वल निर्दोष दृष्टिकर भिन्न द्रव्यकी प्रतीति उपजाता नादिसंसार से जिनका बंधन दृढ बंध रहा है ऐसे ज्ञानावरणादि कम के नाशसे विशुद्ध हुआ है स्फुट हुआ है । जैसे फूलकी कली फूलै उसतरह विकाशरूप है । फिर कैसा है ? जिसके रमनेका क्रीड़ावन आत्मा ही है अर्थात् जिसमें अनंत ज्ञेयों (पदार्थों) के आकार आके झलकते हैं तौभी आप आपने स्वरूप में ही रमता है । जिसका प्रकाश अनंत है । प्रत्यक्ष तेजकर नित्य उदयरूप है । फिर कैसा है ? धीर है, उत्कट है, इसीसे अनाकुल है सब इच्छाओंसे रहित निराकुल है । यहां धीर उदात्त अनाकुल ये तीन विशेषण शांतरूप नृत्यके आभूषण जानने । ऐसा ज्ञान विलास करता है । भावार्थ — यह ज्ञान - की महिमा कही । सो जीव अजीव एक होके रंगभूमिमें प्रवेश करते हैं उनको यह ज्ञान ही भिन्न जानता है । जैसे कोई नृत्य में स्वांग आजाय उसे यथार्थ जो जाने उसको स्वांग करनेवाला नमस्कार कर अपना जैसाका तैसा रूप करलेता है उसीतरह यहां भी जानना | ऐसा ज्ञान सम्यग्दृष्टि पुरुषोंके होता है मिथ्यादृष्टि यह भेद नहीं जानता । आगे जीव अजीवका एकरूप वर्णन करते हैं; - जो [ आत्मानं अजानंतः ] आत्माको नहीं जानते हुए [ परात्मवादिनः ] परको आत्मा कहनेवाले [ केचित् मूढाः तु ] कोई मोही अज्ञानी तो [ अध्यवसानं ] अध्यवसानको [ तथाच ] और कोई [ कर्म ] कर्मको [ जीवं प्ररूपयंति ] जीव कहतें हैं । [ अपरे ]
अजीवका भेद हुआ है । अ