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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । न तु पुनः कायात्मनोनिश्चयान्नुः स्तोत्रं व्यवहारतोस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः । स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवेन्नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्मांगयोः ॥२७॥" "इति परिचिततत्त्वैरात्मकायैकतायां नयविभजनयुक्त्यात्यंतमुच्छादितायां । अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य खरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन्नेक एव ॥ २८॥" इत्यप्रतिबुद्धोक्तिनिरासः ॥ ३३॥ ___एवमयमनादिमोहसंताननिरूपितात्मशरीरैकत्वं संस्कारतयात्यंतमप्रतिबुद्धोपि प्रसभोजंभिततत्त्वज्ञानज्योतिर्नेत्रविकारीव प्रकटोद्घाटितपटलष्टसितिप्रतिबुद्धः । साक्षात् द्रष्टारं खं स्वयमेव हि विज्ञाय श्रद्धाय च तं चैवानुचरितकामः स्वात्मारामस्यास्यान्यद्रव्याणां प्रत्याख्यानं किं स्यादिति पृच्छन्नित्थं वाच्यः-.
सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परेत्ति णादणं । तह्मा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेयव्वं ॥ ३४ ॥
सर्वान् भावान् यस्मात्प्रत्याख्याति परानिति ज्ञात्वा ।
तस्मात्प्रत्याख्यानं ज्ञानं नियमात् ज्ञातव्यं ॥ ३४ ॥ चेत्-भाव्यो रागादिपरिणत आत्मा भावको रंजक उदयगतो मोहस्तयोर्भाव्यभावकयोर्भावः स्वरूपं तस्याभावः क्षयो विनाशः सा चैव तृतीया निश्चयस्तुतिरित्यभिप्रायः । एवं रागद्वेष इत्यादि दंडको ज्ञातव्यः ॥ ३३ ॥ इति प्रथमगाथायां पूर्वपक्षस्तदनंतरं गाथाचतुष्टये निश्चयस्तवन यहांपर जितेंद्रिय, जितमोह, क्षीणमोह-ऐसे कहा वैसा है। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि जो अज्ञानीने तीर्थकरके स्तवनका प्रश्न किया था उसका यह नयविभागकर उत्तर दिया। उसके बलसे आत्माके और शरीरके एकपना निश्चयसे नहीं है। अब फिर इसी अर्थके जाननेसे भेदज्ञानकी सिद्धि होती है ऐसा अर्थरूप काव्य कहते हैं। इति परिचित इत्यादि । अर्थ-इसतरह जिसने वस्तुका यथार्थस्वरूप परिचयरूप किया है ऐसे मुनिने आत्मा और शरीरके एकपनेको नयके विभागकी युक्तिकर अत्यंत निषेधा है । इसके होनेसे उस समयका ज्ञान यथार्थपनेको किस पुरुषके अवतार नहीं धरता (प्रगट नहीं होता) अवश्य प्रगट होता ही है । कैसा होकर ? अपने निजरसके वेगकर खेंचाहुआ एकस्वरूप होकर प्रगट होता है। भावार्थ-निश्चय व्यवहारनयके विभागकर आत्माका और परका अत्यंत भेद दिखलाया है इसको जानकर ऐसा कोंन पुरुष है कि जिसके भेदज्ञान नहीं हो ? होता ही है । क्योंकि ज्ञान अपने स्वरसकर आप अपना स्वरूप जानता है तब अवश्य आप जुदा ही अपने आत्माको जनाता है । यहां कोई दीर्घसंसारी ही होवे तो उसकी कुछ वात नहीं। इसप्रकार अप्रतिबुद्धने जो "हमें तो यह निश्चय है। कि जो देह है वही आत्मा है" ऐसा कहा था उसका निराकरण (समाधान) किया ॥३३॥ . आगे कहते हैं कि इसतरह यह अज्ञानी जीव अनादिके मोहकी संतानकर निरूपण