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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ममाहं पूर्वमासमेतस्यैतत्पूर्वमासीन्न ममैतत्पुनर्भविष्यति नैतस्याहं पुनर्भविष्यामि ममाहं पुनर्भविष्याम्येतस्यैतत्पुनर्भविष्यतीति खद्रव्य एव सद्भूतात्मविकल्पस्य प्रतिबुद्धलक्षणस्य भावात् । "त्यजतु जगदिदानीं मोहमाजन्मलीनं रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् । इह कथमपि नात्मानात्मना साकमेकः किल कलयति काले क्वापि तादात्म्यवृत्ति २२॥" ॥२०॥२१॥२२॥ चावि पुव्वकालमि अहमिदं चैव पूर्वकाले होहिदि पुणोबि मज्झं भविष्यति पुनरपि मम अहमेदं चावि होस्सामि अहमिदं चैव पुनर्भविष्यामि इति भूतभाविकालापेक्षया गाथा गता । एदमित्यादि । एदं इमं तु पुनः असंभूदं असद्भूतं कालत्रयपरद्रव्यसंबंधिमिथ्यारूपं आदवियप्पं आत्मविकल्पं अशुद्धनिश्चयेन जीवपरिणामं करेदि करोति संमूढो सम्यङ्मूढः अज्ञानी बहिरात्मा भूदत्थं भूतार्थं निश्चयनयं जाणंतो जानन् सन् ण करेदि न करोति दु पुनः कालत्रयपरद्रव्यसंबंधिमिथ्याविकल्पं असंमूढो असंमूढः सम्यग्दष्टिरंतरात्मा ज्ञानी भेदाभेदरत्नत्रयभावनारतः । किं च यथा कोप्यज्ञानी अग्निरिंधनं इंधनमग्निः कालत्रये निश्चयेनैकांतेनाभेदेन वदति तथा देहरागादिपरद्रव्यमिदानीमहं भवामि पूर्वमहमासं पुनरग्रे भविष्यामीति यो वदति सोऽज्ञानी बहिरात्मा तद्विपरीतो ज्ञानी सम्यग्दृष्टिरंतरात्मेति । एवं अज्ञानी ज्ञानी जीवलक्षणं ज्ञात्वा निर्विकारस्वसंवेदनलक्षणे भेदज्ञाने स्थित्वा भावनां कर्तेति तामेव भावनां दृढयति । यथा कोपि राजसेवकपुरुषो राजशत्रुभिः सह संसर्ग कुर्वाणः सन् राजाराधको न भवति तथा परमात्माऽराधकपुरुषस्तत्प्रतिपक्षभूतमिथ्यात्वरागादिभिः परिणममाणः परमात्माराधको न भवतीति भावार्थः । एवमप्रतिबुद्धलक्षणकथनेन चतुर्थस्थले गाथात्रयं गतं ॥२०॥२१॥२२॥ होऊंगा इस (परद्रव्य )का यह (परद्रव्य) आगामी होगा । ऐसा जो स्वद्रव्यमें ही सत्यार्थ आत्मविकल्प होता है। यही प्रतिबुद्ध ज्ञानीका लक्षण है इसीसे ज्ञानी पहचाना जाता है ॥ भावार्थ-जो परद्रव्यमें आत्माका विकल्प करता है वह तो अज्ञानी है । और अपने आत्माको ही अपना मानता है वह ज्ञानी है । ऐसा अग्नि ईधनके दृष्टांतकर दृढ किया है। आगे इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं । त्यजतु इत्यादि । अर्थलोक है वह अनादि संसारसे लेकर अबतक अनुभव किये मोहको अब तो छोड़े और रसिकजनोंको रुचनेवाला उदय हुआ जो ज्ञान उसे आस्वादन करे क्योंकि इस लोकमें आत्मा है वह परद्रव्यकर सहित किसी समयमें प्रगट रीतिसे एकपनेको किसी प्रकार प्राप्त नहीं होता । इसलिये आत्मा एक है वह अन्य द्रव्यकर एकतारूप नहीं होता ।। भावार्थ-आत्मा परद्रव्यसे किसीप्रकार किसीकालमें एकताके भावको नहीं प्राप्त होता । इसलिये आचार्यने ऐसी प्रेरणा की है कि अनादिसे लगा हुआ जो परद्रव्यसे मोह है उस एकपनेरूप मोहको अभी छोड़ो और ज्ञानको आस्वादो । मोह है वह वृथा है झूठा है दुःखका कारण है । ऐसा भेदविज्ञान बतलाया है ।।२०।२१।२२।।