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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । गुणस्य शुक्ललोहितत्वादेरभावान्न निश्चयतस्तत्स्तवनेन स्तवनं तीर्थकरकेवलिपुरुषगुणस्य स्तवनेनैव तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य स्तवनात् ॥ २९ ॥ कथं शरीरस्तवनेन तदधिष्टातृत्वादात्मनो निश्चयेन स्तवनं न युज्यते इति चेत्;
णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि। देहगुणे धुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति ॥ ३०॥
नगरे वर्णिते यथा नापि राज्ञो वर्णना कृता भवति ।
देहगुणे स्तूयमाने न केवलिगुणाः स्तुता भवंति ॥ ३०॥ तथाहि-"प्राकारकवलितांवरमुपवनराजीनिगीर्णभूमितलं । पिषतीव हि नगरमिदं परिखावलयन पातालं ॥ २५॥” इति नगरे वर्णितेपि राज्ञः तदधिष्ठातृत्वेपि प्राकारोपवनपरिखादिमत्त्वाभावाद्वर्णनं न स्यात् । तथैव-"नित्यमविकारसुस्थितसर्वांगमपूर्वसहजलावण्यं । अक्षोभमिव समुद्रं जिनेंद्ररूपं परं जयति ॥ २६ ॥" दीन् स्तौति यः स तत्त्वं वास्तवं स्फुटं वा केवलिनं स्तौति । यथा शुक्लवर्णरजतशब्देन सुवर्ण भण्यते तथा शुक्लादिकेवलिशरीरस्तवनेन चिदानंदैकस्वभावं केवलिपुरुषस्तवनं निश्चयनयेन न भवतीयभिप्रायः ॥ २९॥ अथ शरीरप्रभुत्वेपि सत्यात्मनः शरीरस्तवनेनात्मस्तवनं न भवति निश्चयनयेन । तत्र दृष्टांतमाह यथा प्राकारोपवनखातिकादिनगरवर्णने कृतेपि नैव राज्ञो वर्णना निश्चयसे शरीरके गुणोंके स्तवन करनेसे तीर्थंकर केवली पुरुषका स्तवन नहीं होता । तीर्थकर केवली पुरुषके गुणोंके स्तवनकरनेसे ही केवलीका स्तवन होता है ।। २९ ।।
आगे शिष्यका प्रश्न है कि आत्मा तो शरीरके ही आधार है इसलिये शरीरकी स्तुति करनेसे आत्माका स्तवन निश्चयकर क्यों ठीक नहीं है ऐसे प्रश्नका उत्तररूप गाथा दृष्टांतसहित कहते हैं;-[यथा ] जैसे [ नगरे] नगरका [वर्णिते वर्णन करनेपर [राज्ञः वर्णना ] राजाका वर्णन [ नापि कृता] नहीं किया [भवंति ] होता उसीतरह [ देहगुणे स्तूयमाने ] देहके गुणोंका स्तवन होनेसे [केवलिगुणाः] केवलीके गुण [स्तुता न ] स्तवनरूप किये नहीं [भवंति ] होते । इसी अर्थका टीकामें काव्य कहा गया है । प्राकार इत्यादि । अथे--यह नगर ऐसा है कि जिसने कोट ( परकोटा ) कर आकाशको ग्रस लिया है अर्थात् इसका कोट बहुत ऊंचा है । वगीचोंकी पंक्तियोंसे जिसने भूमितलको निगल लिया है अर्थात् चारों ओर वागोंसे पृथ्वी ढक गई है । कोटके चारों तरफ खाईके घेरेसे मानों पातालको पी रहा है अर्थात् खाई बहुत गहरी है । ऐसे नगरका वर्णन करते हैं यद्यपि इसके आधार राजा है तो भी कोट बाग खाई आदि सहित राजा नहीं है इसलिये इससे राजाका वर्णन नहीं हो सकता ॥ उसीतरह तीर्थकरका स्तवन शरीरकी स्तुति करनेसे नहीं होसकता ॥ उसका श्लोक भी कहते हैं । नित्य इत्यादि । अर्थ