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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । पुद्गलपरिणामेष्वहमित्यात्मनि च कर्ममोहादयोऽतरंगा नोकर्मशरीरादयो बहिरंगाश्चात्मतिरस्कारिणः पुद्गलपरिणामा अमी इति वस्त्वभेदेन यावंतं कालमनुभूतिस्तावंतकालमात्मा भवत्यप्रतिबुद्धः । यदा कदाचिद्यथा रूपिणो दर्पणस्य स्वपराकारावभासिनी स्वच्छतैव वह्नरौष्ण्यं ज्वाला च तथा नीरूपस्यात्मनः स्वपराकारावभासिनी ज्ञाततैव पुद्गलानां कर्म नोकर्म चेति स्वतःपरतो वा भेदविज्ञानमूलानुभूतिरुत्पश्यति तदैव प्रतिबुद्धो भविएका बुद्धिः अप्पडिबुद्धो अप्रतिबुद्धः स्वसंवित्तिशून्यो बहिरात्मा हवदि भवति ताव तावत्कालमिति । अत्र भेदविज्ञानमूलं शुद्धात्मानुभूतिः स्वतः स्वयंबुद्धापेक्षया परतो वा बोधितजैसे स्पर्श रस गंध वर्ण आदि भावोंमें चौड़ा नीचे अवगाहरूप उदरआदिके आकार परिणत हुए पुद्गलके स्कंधों ( समूह ) में यह घट है और घटमें स्पर्श रस गंध वर्णादि भाव हैं तथा पृथु बुध्नोदर आदिके आकार परिणत पुद्गल स्कंध हैं ऐसे वस्तुके अभेदकर अनुभूति है, उसीतरह कर्म जो मोह आदि अंतरंग परिणाम और नोकर्म जो शरीर आदि बाह्य वस्तु ये सब पुद्गलके परिणाम हैं और आत्माके तिरस्कार करनेवाले हैं। उनमें ये कर्म नोकर्म मैं हूं तथा मोहादिक अंतरंग शरीरादि बहिरंग कर्म आत्माके तिरस्कार करनेवाले पुद्गल परिणाम वे मेरे आत्माके हैं इसतरह वस्तुके अभेदकर जबतक अनुभूति है तबतक आत्मा अप्रतिबुद्ध है अज्ञानी है। और जब किसीसमय जैसे रूपी दर्पणकी स्वपरके आकारको प्रतिभासकरनेवाली स्वच्छता ही है तथा उष्णताऔर ज्वाला अग्निकी है उसी तरह अरूपी आत्माकी अपने परके जाननेवाली ज्ञातृता (ज्ञातापना) ही है और कर्म नोकर्म पुद्गलके ही हैं ऐसी अपने आप ही तथा दूसरेके उपदेशसे भेदविज्ञान कारणवाली अनुभूति उत्पन्न हो जायगी तब ही यह आत्मा प्रतिबुद्ध (ज्ञानी) होगा। भावार्थ-यह आत्मा जब तक ऐसा जानता है कि जैसे स्पर्शआदिक पुद्गलमें हैं और पुद्गल स्पर्शादिमय है उसीतरह जीवमें कर्म नोकर्म हैं और कर्मनोकर्ममय जीव है तब तक तो अज्ञानी है । और जब यह जान ले कि आत्मा तो ज्ञाता ही है
और कर्मनोकर्म पुद्गलके ही हैं तभी यह ज्ञानी होता है । जैसे दर्पणमें अग्निकी ज्वाला दीखती हो वहां ऐसा जाने कि ज्वाला तो अग्निमें ही है आरसेमें नहीं बैठी। जो आरसेमें दीख रही है वह दर्पणकी स्वच्छता ही है। इसीतरह कर्म नोकर्म अपने आत्मामें नहीं बैठे आत्माके ज्ञानकी स्वच्छता ऐसी ही है जिसमें ज्ञेयका प्रतिबिंब दीखता है इसप्रकार कर्मनोकर्म ज्ञेय हैं वे प्रतिभासते हैं ऐसा अनुभव आत्माका भेदज्ञानरूप या तो स्वयमेव हो अथवा उपदेशसे हो तब ही ज्ञानी होता है ॥ अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं । "कथमपि” इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष आपसे ही अथवा परके उपदेशसे किसीतरह भेदविज्ञानरूप मूलकारणवाली अविचल निश्चल अपने आत्माकी अनुभूतिको पाते हैं वे ही पुरुष दर्पणकी तरह अपने आत्मामें प्रतिबिंबित हुए अनंतभावोंके