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बौद्ध-कालीन भारत लोग अनेक प्रकार की तपस्याओं के द्वारा अपनी काया को कष्ट पहुँचाते थे। इन्द्रियों पर विजय पाने के लिये पंचाग्नि तापना, एक टाँग से खड़े होकर और एक हाथ उठाकर तपस्या करना, महीनों तक कठिन से कठिन उपवास करना और इसी तरह की दूसरी तपस्याएँ आवश्यक समझी जाती थीं। सरदी और गरमी का कुछ खयाल न करके ये लोग अपने उद्देश्य की सिद्धि में दत्तचित्त रहते थे। इन लोगों को कठिन से कठिन शारीरिक दुःख से भी क्लेश न होता था। इनका अभ्यास इतना बढ़ा चढ़ा होता था कि इनमें से कुछ तपस्वी अपने सिर तथा दाढ़ी मूंछ के बालों को हाथ से नोच नोचकर फेंक देते थे। लोगों में यह विश्वास बहुत जोरों के साथ फैला हुआ था कि यदि इस तरह की तपस्या पूर्ण रूप से की जाय, तो मनुष्य सारे विश्व का भी साम्राज्य पा सकता है। बुद्ध भगवान् के जन्म समय में पूर्वोक्त तामसी तप की महिमा खूब फैली हुई थी। भगवान् बुद्धदेव ने स्वयं लगभग छः वर्षों तक इसी हठ योग का कठिन व्रत धारण किया था । पर जब उनको इसकी निस्सारता का विश्वास हो गया, तब वे इसे छोड़कर सत्य ज्ञान की खोज में चल पड़े थे। ___ शान-मार्ग और दार्शनिक विचार-पर आत्मिक उन्नति चाहनेवाले पुरुषों की आत्मा को न तो कर्म-काण्ड से ही शांति मिली और न हठ योग या तपस्या से ही परमानंद की प्राप्ति हुई। ऐसे लोगों को समाज का बनावटी और झूठा जीवन कष्ट देने लगा। सत्य के इन अन्वेषकों ने अपने घर-बार और इस : असत्य संसार से मुँह मोड़कर बन की ओर प्रस्थान किया। बुद्ध भगवान् के अवतार लेने के पहले, और उनके समय में भी, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com