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सिद्धान्त और उपदेश हे भिक्षुगण, जिस कारण से रूप आत्मा नहीं है, उसी कारण से बह पीड़ा देता है"।* __ अविद्या-बुद्ध भगवान ने अविद्या को सब प्रकार के दुःखों का निदान अथवा मूल कारण कहा है । मूल अविद्या से संस्कार, विज्ञान, नामरूप आदि कारण-परंपरा के द्वारा समस्त दुःखसमूह उत्पन्न होते हैं। अविद्या के निरोध से ही इन दुःख-समूहों का निरोध होता है।
आत्म-निरोध और आत्मोनति-बौद्ध धर्म का मुख्य सिद्धान्त यह है कि यात्म-निरोध के द्वारा आत्मोन्नति की जाय । बुद्ध भगवान ने आत्म-निरोध और आत्मोन्नति पर बड़ा जोर दिया है। अपनी मृत्यु के दिन उन्होंने भिक्षुओं को बुलाकर आत्मोन्नति का मार्ग बतलाया था। यह मार्ग उन्होंने सात भागों में बाँटा है। ये सातों बौद्ध धर्म के सात रत्न कहलाते हैं। भगवान् बुद्ध ने कहा था-हे भिक्षुओ, वे सात रत्न हैं-(१) चारों सच्चे ध्यान; (२) पाप के विरुद्ध चारों प्रकार के बड़े प्रयत्न; (३) महात्मा होने के चारों मार्ग; (४) पाँचो धार्मिक शक्तियाँ; (५) आत्मिक ज्ञान की पाँचो इन्द्रियाँ (६) सातो प्रकार की बुद्धि; और (७) आठो प्रकार का मार्ग।
जिन “चार सच्चे ध्यानों" का उल्लेख ऊपर किया गया है, वे देह, ज्ञान, विचार और कारण के विषय में हैं। जिन “पाप के
* महावग्ग १.६.३८.
+महा परिनिब्बान सुत्त, ३. ६५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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