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बौद्ध-कालीन भारत
देता हूँ। मैंने इनको जीवदान दिया। ये सब हरी हरी घास चरें, ठंढा पानी पीयें और ठंढी ठंढी हवा से शीतल हों"। .
बुद्धदेव ने त्रिविध यज्ञों की बात बतलाकर अन्त में शील, समाधि और प्रज्ञा-यज्ञ के सम्बन्ध में कहा है कि शील से समाधि
और समाधि से श्रद्धा का लाभ होता है। इस प्रकार बुद्ध भगवान् के मत से प्रज्ञा-यज्ञ ही सर्वश्रेष्ठ यज्ञ है।
अनीश्वर वाद-बौद्ध धर्म अनीश्वर-वादी है। उसका सिद्धान्त है कि ईश्वरोपासना न करके भी मुक्ति या निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है । ईश्वर के अस्तित्व या अनस्तित्व से कुछ बनता बिगड़ता नहीं। बुद्धदेव ने वेदों का प्रामाण्य भी नहीं माना है।
मैत्री आदि भावनाएँ-सब प्राणियों को मित्र के समान जानना ही “मैत्री-भावना" है । बौद्ध धर्म में यह भावना सुप्रसिद्ध और अति रमणीय है। "मुदिता", "उपेक्षा" और "करुण" आदि और भी कई भावनाओं के द्वारा मनुष्य धीरे धीरे उन्नति करता हुआ निर्वाण के मार्ग में जा सकता है ।
जाति-भेद-बुद्ध भगवान् जाति-भेद नहीं मानते थे । बौद्ध धर्म में ऊँच नीच का विचार न था। धार्मिक और पवित्र जीवन व्यतीत करने से, क्या ब्राह्मण और क्या शूद्र, सभी समान रीति से सर्वोच्च प्रतिष्ठा पा सकते थे। जाति-भेद भिक्षुओं के संप्रदाय में तो था ही नहीं। गृहस्थों पर से भी उसका प्रभाव जाता रहा; क्योंकि कोई गृहस्थ, चाहे वह कितने ही नीच वंश का क्यों न होता, मिक्षुओं का संप्रदाय ग्रहण करके बड़ी से बड़ी प्रतिष्ठा पा. सकता था। "धम्म-पद" में लिखा भी है-"मनुष्य अपने वंश . अथवा जन्मसे ब्राह्मण नहीं होता; बल्कि जिसमें सत्यता और पुण्य
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