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ध धर्म पहले दिया । न प्राप्त
सिमान्त और उपदेश करती हुई आगे बढ़ी। इसके बाद धारा-भंग हुआ और एक धारा की तीन धाराएँ हो गई। वे तीन धाराएँ तीन भिन्न दिशाओं में बहीं। भिन्न प्रकृति के संसर्ग से उनकी प्रकृतियाँ भी भिन्न हो गई; इसलिये उनके नाम भी भिन्न भिन्न हुए। प्रधान धारा का पहला ही नाम रहा और वह वैदिक, हिंदू या ब्राह्मण धर्म के नाम से विख्यात है। अन्य दो धाराओं में एक का नाम बौद्ध और दूसरी का जैन हुआ। इसके सिवा और कुछ नहीं । बौद्ध धर्म हठात् आकोश से अथवा समुद्र से उत्पतित नहीं हुआ । जो धर्म पहले से चला आ रहा था, गौतम बुद्ध ने उसे केवल एक नया रूप दे दिया । जिस तरह प्राचीन वैदिक धर्म ही भिन्न भिन्न अवस्थाओं में परिवर्तन प्राप्त करता हुआ पौराणिक धर्म में परिणत हुआ, उसी तरह बौद्ध धर्म भी इसी प्राचीन वैदिक धर्म का विभिन्न परिवर्तन है । अब आइये देखें कि बुद्ध भगवान ने अपने कौन कौन से सिद्धान्त प्राचीन वैदिक धर्म से लिये हैं।
(१) बौद्ध धर्म का मूल सिद्धान्त “दुःखवाद" है। यह भारतीय दर्शन-शास्त्रों की साधारण बात है। इसमें बौद्ध धर्म की कोई विशेषता नहीं है। इसके लिये प्रमाण देने की भी आवश्यकता नहीं; क्योंकि इसे सभी जानते हैं। तथापि एक प्रमाण का उल्लेख किया जाता है । सांख्य दर्शन का मूल यही है । दुःख की निवृत्ति किस तरह होगी, सांख्य-दर्शन यही बताने में प्रवृत्त हुआ है।
(२) बुद्धदेव ने जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि के रूप में दुःख का विश्लेषण किया है। किंतु हम यह नहीं कह सकते कि बुद्ध भगवान ही इस के प्रथम ज्ञाता थे; क्योंकि उपनिषदों में उसके अनेक प्रमाण हैं, जिनमें से कुछ यहाँ दिये जाते हैं।
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