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धार्मिक या सीमा पर भेलसा के समीप है। प्राचीन विदिशा नगरी यहीं थी। इसके बँडहर अब तक पाये जाते हैं। इसी जगह बेतवा नदी के एक बड़े टीले पर "गरुडध्वज' नामक स्तंम खड़ा है। उस स्तंभ पर एक अति प्राचीन लेख है, जिसका भावार्थ है
“यह वासुदेव का गरुड़ध्वज विष्णु-भक्त हेलिओडोरस की आज्ञा से बनाया गया। वह यवन (यूनानी) था । उसके पिता का नाम डीअोन था । वह तक्षशिला का रहनेवाला था। इसी काम के लिये वह राजा एन्टिएल्काइडस का दूत या प्रतिनिधि होकर विदिशा के राजा भागभद्र के पास आया था ।"
इस शिलालेख में एन्टिएल्काइडस "भागवत” (विष्णु का भक्त) कहा गया है । इसका समय ई० पू० १४० और १३० के बीच माना जाता है। इस शिलालेख से यह सूचित होता है कि उस समय हिन्दू धर्म जीवित था; और वासुदेव श्रीकृष्ण की उपासना प्रतिष्ठित यवनों ने भी स्वीकृत कर ली थी। इस शिलालेख से यह भी सिद्ध होता है कि वैष्णव सम्प्रदाय कोई नई चीज नहीं, बल्कि वह दो हजार वर्षों से भी अधिक प्राचीन है।
कुषण राजाओं के समय ब्राह्मण धर्म-कुषणों के समय में हिन्दू धर्म के प्रचलित रहने का प्रमाण तो उनके सिकों से ही मिलता है। कैडफाइसिज द्वितीय और वासुदेव के सिक्कों पर केवल शिव की मूर्ति पाई जाती है। इससे मालूम होता है कि वे शिव के परम भक्त थे। वासिष्क के समय का एक यूप ( यज्ञस्तंभ) भी मिला है, जिससे पता चलता है कि उस समय बौद्ध धर्म का प्रचार होने पर भी यज्ञों का होना बन्द नहीं हुआ था। यह यज्ञ-स्तम्भ पत्थर का है और मथुरा के पास यमुना के किनारे
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