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बौद्ध-कालीन भारत
३६८ गई । मालूम होता है कि उस समय फिर भिक्षु-संप्रदाय में एक ऐसा दल पैदा हो गया था, जिसने बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों में कुछ परिवर्तन करने का उद्योग किया। इस उद्योग के विरुद्ध काकनद के पुत्र स्थविर यश तथा रेवत आदि ७०० भिक्षुओं ने वैशाली में एक महासभा की। यह महासभा लगातार आठ महीनों तक होती रही। इसमें बुद्ध भगवान् के उपदेशों और सिद्धान्तों की पुनरावृत्ति की गई। पर मालूम होता है कि इस महासभा के निश्चय को सब लोगों ने नहीं माना; क्योंकि इसके विरुद्ध पक्षवालों ने अपनी सभा अलग की, जिसमें अधिक भिक्षु सम्मिलित हुए थे । खेद है कि इस विरुद्ध सभा का कोई विशेष वृत्तान्त ज्ञात नहीं । बौद्ध दन्त-कथाओं में से पता चलता है कि यह सभा कालाशोक के राज्य काल में हुई थी। पर इस कालाशोक का भी कुछ पता नहीं है।
तृतीय महासभा "दीपवंश" और "महावंश" से पता लगता है कि द्वितीय महासभा के १३५ वर्ष बाद सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के ग्रन्थों अर्थात् “त्रिपिटक” को अन्तिम बार निश्चित करने के लिये ई० पू० २४२ के लगभग पटने में एक तीसरी सभा की। इस सभा के अगुआ तिस्स मोग्गलिपुत्त थे। उस समय पटने के अशोकाराम में १३ हज़ार धूर्त भिक्षु रहते थे। वे बुद्ध भगवान् के सिद्धान्तों के विरुद्ध आचरण करते थे और बौद्ध धर्म को बदनाम कर रहे थे। उन्हें वहाँ से निकलवाकर मोग्गलिपुत्त आदि एक हज़ार भिक्षु अशोकाराम विहार में एकत्र हुए। लगातार नौ मास तक सभा करके उन लोगों ने त्रिपिटक की पुनरावृत्ति की। मालूम होता है कि इसी सभा के निश्चय के अनुसार बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिये भिक्षु-गण विदेशों में भेजे गये थे। इस सभा के बाद ही अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र को धर्म-प्रचारार्थ लंका भेजा। महेन्द्र अपने साथ बहुत से ऐसे भिक्षुओं को भी लेता गया था, जिन्हें “त्रिपिटक” कण्ठान
थे। इस प्रकार लंका में वे त्रिपिटक पहुँचे, जो पटने की सभा में निश्रित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com