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बौख-कालीन भारत
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वर्गों के लोग होते थे। राजा से रंक तक के बालक यहाँ भी हो सकते थे। “महासुत्सोन जातक" से पता लगता है कि उस समय तक्षशिला में १०१ राजकुमार विद्याध्ययन कर रहे थे । वहाँ दो प्रकार के विद्यार्थी पढ़ते थे-एक “धर्मान्तेवासिक", जो गुरु की सेवा-शुश्रूषा करके उसके बदले में विद्या पढ़ते थे, और दूसरे "आचार्य भागदायक", जो गुरु को गुरु-दक्षिणा देकर पढ़ते थे। गुरु-दक्षिणा १००० मुद्रा थी । विद्यार्थी गुरु के यहाँ पुत्रवत् रहते थे । किस विषय की शिक्षा कितने दिनों में समाप्त होगी, इसका कोई निश्चित नियम न था । यह बात उस विषय की कठिनता और विद्यार्थी की धारणा शक्ति पर ही निर्भर रहती थी । जीवक ने, जिसका उल्लेख ऊपर आ चुका है. सात वर्षों में आयुर्वेद की संपूर्ण शिक्षा प्राप्त की थी। ___ "तिलमुठि जातक" का कुछ अंश हम यहाँ उद्धत करते हैं, जिससे पता लगेगा कि तक्षशिला के विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों के भर्ती होने का क्या क्रम था
__ "काशी के राजा ब्रह्मदत्त ने अपने षोड़श वर्षीय कुमार को अपने समीप बुलाकर एक जोड़ी खड़ाऊँ, पत्तों का बना हुमा एक छाता और एक सहस्र मुद्राएँ देकर कहा-'पुत्र, अब तुम तक्षशिला जाओ और वहीं शिक्षा ग्रहण करो।' राजकुमार अपने पिता की आज्ञा मानकर उसी समय चल पड़ा और यथा समय तक्षशिला पहुँचा । उस समय अध्यापक अपने विद्यार्थियों को पढ़ाकर घर के द्वार पर टहल रहे थे। उन्हें देखते ही राजकुमार ने अपनी खड़ाऊँ उतार दी, छाता बन्द कर लिया और हाथ जोड़े हुए चुपचाप उनके सामने खड़ा हो गया । अध्यापक ने बड़े प्रेम से उस नये आये हुए विद्यार्थी का स्वागत किया और उसे थका हुआ जानकर आराम करने को कहा। इसके बाद अध्यापक ने उसे भोजन कराया। खा पीकर कुछ देर आराम करने के बाद वह फिर गुरु के पास आया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। गुरु ने पूछाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com