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बौद्ध कालीन भारत
३४६ था। इस काल की शिल्प-कला या मूर्तिकारी की सब से बड़ी विशेषता यहो है। इस काल की मूर्तिकारी या शिल्प-कला को साधारणतः “कुषण मूर्तिकारी" कहते हैं, क्योंकि कुषण राजाओं के समय में इसकी विशेष उन्नति हुई थी। इस काल की मूर्तियों के दो भेद हैं। एक वह जो केवल भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त तथा उत्तर पंजाब में पाया जाता है और जिस पर यूनान की मूर्तिकारी का विशेष प्रभाव है। यह गान्धार मूर्तिकारी के नाम से विख्यात है। दूसरा भेद वह है, जिसकी उत्पत्ति भारतवर्ष के मध्य भाग-मथुरा, सारनाथ तथा अमरावती-में हुई और जिस पर यूनानी शिल्प-कला का इतना प्रभाव नहीं पड़ा, जितना गान्धार मूर्तिकारी पर पड़ा था। इसकी शैली गान्धार
शैली से भिन्न है। इसका नाम हम "स्वदेशी कुषण मूर्तिकारी" रखते हैं; क्योंकि इसमें भारतीय भावों की प्रधानता है । ____ गान्धार मूर्तिकारी-पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त की मूर्तिकारी का नाम “गान्धार" इसलिये पड़ा कि इस शैली की मूर्तियाँ केवल उस प्रदेश में पाई जाती हैं, जो प्राचीन समय में “गान्धार" कह. लाता था। महाभारत के पाठकों को मालूम होगा कि कौरवों की माता गान्धारी इसी गन्धार देश के राजा की कन्या थीं। आजकल का पेशावर जिला, काबुल की तराई, स्वात, बुनेर, सिन्धु
और मेलम नदियों के बीच का प्रदेश तथा तक्षशिला ये सब मिलकर प्राचीन समय में "गन्धार" कहलाते थे। मोटे तौर पर
आजकल के पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त तथा उसके आस पास के प्रदेश को प्राचीन समय का “गन्धार" समझना चाहिए। इन स्थानों में जो प्राचीन मूर्तियाँ मिलती हैं, वे सब बौद्ध धर्म से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com