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बौद्ध-कालीन भारत
३५६ भारतवर्ष का प्रधान धर्म था, वह भारतवर्ष से एक दम किस तरह लुप्त हो गया। इसका उत्तर यह है कि वह गायब नहीं हुआ, बल्कि दूसरे रूप में बदल गया। हर एक संस्था में समय की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तन हुआ करते हैं। जिस समय बुद्ध भगवान ने अपना धर्म चलाया, उस समय यज्ञ और बलिदान खूब होते थे । लोगों में दया का भाव कम हो रहा था। वे यज्ञ, होम, जप, मन्त्र और तपस्या को ही सब से बड़ा धर्म मान रहे थे और वास्तविक धर्म की ओर से पराङ्मुख हो रहे थे। वे रवाज की गुलामी में चारो ओर से जकड़े हुए थे और सरल तथा स्वाभाविक जीवन की महिमा भूल गयेथे । ऐसे समय में बुद्ध ने एक नये धर्म की स्थापना करके अहिंसा तथा दया का प्रचार किया और अच्छे कर्म करने की महिमा लोगों को बतलाई । बुद्ध ने लोगों से कहा कि तुम हवि, घृत आदि अग्नि में मत जलाओ, बल्कि अपने बुरे विचारों और कार्यों को, अपनी बुरी प्रवृत्तियों और इच्छाओं को, अपने क्रोध और ईर्ष्या के भावों को ज्ञान रूपी अग्नि में दहन करो। पर बुद्ध का प्रचलित किया हुआ धर्म एक प्रकार का संन्यास मार्ग था । बुद्ध के मूल उपदेश में आत्मा, ब्रह्म या ईश्वर का अस्तित्त्व नहीं माना गया था। सर्वसाधारण इस शुष्क निरीश्वर संन्यास-मार्ग को न समझ सकते थे। बुद्ध के सिद्धान्तों के अनुसार निर्वाण प्राप्त करने के लिये -संसार से वैराग्य लेकर भिक्षुओं की तरह जीवन बिताना नितान्त
आवश्यक था; पर सब लोग गृहस्थी छोड़कर भिक्षु या संन्यासी नहीं बन सकते थे। अतएव उनके लिये एक ऐसे सरल और प्रत्यक्ष मार्ग की आवश्यकता हुई, जो सब के हृदयों को आकर्षित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com