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बाद्ध-कालीन भारत
३३२ यहाँ तक कि धीरे धीरे उनके नाम भी हिन्दू ढंग के होने लगे। वासुदेव और रुद्रदामन इसके उदाहरण हैं । पश्चिमी भारत में जो शक वंशी राजा थे, उनके नामों के बाद प्रायः “वर्मन्" या "दत्त" लगा हुआ मिलता है । इससे पता लगता है कि वे पूर्ण रूप से हिन्दू हो गये थे और पौराणिक धर्म को मानने लगे थे। इसी तरह कैडफ़ाइसिज़ द्वितीय और वासुदेव कुषण के सिक्कों पर शिव की मूर्ति मिलती है, जिससे पता लगता है कि वे शिव के परम भक्त थे । इससे यह भी सूचित होता है कि शैव संप्रदाय कोई नया नहीं, बल्कि बहुत पुराना है । उन दिनों शिव की पूजा इतनी अधिक प्रचलित थी कि विदेशी राजाओं को भी अपने सिक्कों पर शिव की मूर्ति रखनी पड़ती थी। इन्टिएल्काइडस के बेसनगरवाले स्तम्भ-लेख से सूचित होता है कि उस समय वहाँ वैष्णव धर्म प्रबल था और उसे यवन भी मानने लगे थे।
जाति-भेद-अब प्रश्न यह उठता है कि ये सब विदेशी गये कहाँ ? क्या वे देश के बाहर निकाल दिये गये ? नहीं । उनके नामों, सिक्कों और शिलालेखों ही से पता चलता है कि वे हिन्दू जाति रूपी महान समुद्र में समा गये। उस समय हिन्दू जाति में दूसरी जातियों को हजम कर लेने की ताकत थी, जिसका मुसलमानों के समय में अभाव हो गया था। उसी शक्ति की बदौलत उस समय चारों वर्णों और उनके अवान्तर भेदों में कुल विदेशी मिला लिये गये। इसी तरह से आजकल की अनेक जातियों और वर्णसंकरों का जन्म हुआ है। इससे पता लगता है कि उस समय जाति-भेद खूब पुष्ट हो गया था, और विदेशियों के मेल से नई नई जातियाँ बनती जा रही थीं।
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