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सिद्धान्त और उपदेश
इस विषय में भी उनका सिद्धांत नया नहीं है। उनके बहुत पहले सांख्य-दर्शनकार महर्षि कपिल ने तीव्र युक्तियों से वैदिक कार्यसमूह की निन्दा की है। महर्षि कपिल के पहले भी वैदिक कर्मसमूह के प्रति लोग श्रद्धा-रहित हो चुके थे। मुण्डकोपनिषद् (१.२०७ ) में कहा गया है
प्लवा ह्येते अदा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवयवं येषु कर्म । एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा नरामृत्युं पुनरेवापि यान्ति ॥
अर्थात् जिनके निकृष्ट कर्म कहे गये हैं, ऐसे अष्टादश जनयुक्त (ऋत्विक् १६ + यजमान १ + यजमानपत्नी १ = १८) यज्ञ रूपी प्लव ( नौकाएँ) कमजोर हैं । जो मूर्ख इनको कल्याणकारी
समझकर इनका अभिनन्दन करते हैं, वे फिर फिर जरा और - मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
वैदिक कर्म-समूह की निन्दा करनेवाली और भी अनेक श्रुतियों पाई जाती हैं । गीता में भी कहा हैत्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
(गीता २.४५. ) अर्थात् हे अर्जुन, वेद सत, रज और तम इन तीनों गुणों की बातों से भरे पड़े हैं; इसलिये तू निस्त्रै-गुण्य अर्थात् त्रिगुणों से अतीत हो।
(९) द्रव्य-यज्ञ आदि की अपेक्षा प्रज्ञा-यज्ञ को ही श्रेष्ठ मानकर बुद्धदेव ने उसका प्रचार किया था। पर उनकी इस बात को भी - हम नई नहीं कह सकते । बुद्धदेव ने जैसे पहले द्रव्य-यज्ञ की बात
कहकर अन्त में प्रज्ञा-यज्ञ को ही श्रेष्ठता दी है, वैसे ही गीता में भी कहा गया है । यथा
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