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बौद्ध-कालीन भारत
१७२ स्थल-मार्ग के सिवा बहुत से जल-मार्ग भी थे, जिनके द्वारा देश के एक हिस्से से दूसर हिस्से को माल भेजा जाता था।
नौ विभाग-नौ विभाग का अध्यक्ष "नावाध्यक्ष" कहलाता था * । वह समुद्र, नदी और झील में चलनेवाले जहाजों और नावों की रक्षा का प्रबन्ध करता था और उनके लिये नियम बनाता था। उसका कर्त्तव्य जल-मार्ग में डाकाज़नी रोकना और व्यापारिक जहाजों के लिये जल-मार्ग सुरक्षित रखना था। किस प्रकार के जहाज या नाव से तथा किस प्रकार के लोगों से कितना कर लेना चाहिए, इसके नियम भी वही बनाता था । बन्दरगाहों पर सौदागरों को एक प्रकार का कर देना पड़ता था। जो यात्री राज्य की नौकाओं पर जाते थे, उन्हें निश्चित उतराई देनी पड़ती थी। जो गाँव समुद्र या नदी के किनारे पर होते थे, उन्हें भी एक निश्चित कर देना पड़ता था । व्यापारिक नगरों में जो नियम प्रचलित रहते थे, उन्हें नावाध्यक्ष पूरी तरह से मानता था। वह पत्तन ( बन्दरगाह ) के अध्यक्ष की आज्ञाओं का भी पूरी तरह से पालन करता था। जब कभी तूफान से टूटा फूटा जहाज बन्दरगाह में आता था, तब वह उसके माँझियों की वैसी ही रक्षा करता था, जैसी कि पिता अपने पुत्र की करता है। जो सौदागरी जहाज तूफान से टूट फूट जाते थे, उनका कर या तो माफ कर दिया जाता था और या आधा कर दिया जाता था। "हिंस्रक" ( डाका डालनेवाले) जहाज या शत्रु के जहाज़ नष्ट कर दिये जाते थे। जो मनुष्य बिना महसूल दिये नदी पार
कौटिलीय अर्थशास्त्र: अधि० २, अध्या० २८, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com