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बौद्ध-कालीन भारत
२३२. का अफसर “सुराध्यक्ष" कहलाता था (अधि० २, प्रक० ४२) ।
नगर का मजिस्ट्रेट या अध्यक्ष “नागरक” कहलाता था । उसके नीचे “गोप" और "स्थानिक" नाम के अफसर होते थे । वे नगर की देख भाल और प्रबंध करते थे । नागरकों आदि का काम अपने अपने नगर की जन-संख्या की जाँच करना, प्रत्येक घर का आय-व्यय तथा पालतू पशुओं की संख्या जानना, नगर की सफाई रखना आदि था। नगर की सफाई का बड़ा खयाल रक्खा जाता था। यदि कोई मनुष्य सड़क पर कूड़ा कर्कट फेंकता था, तीर्थस्थान, मंदिर, तालाब आदि के पास मलमूत्र का त्याग करता था या श्मशान के अतिरिक्त किसी दूसरे स्थान पर मुरदा जलाता था, तो उसे दण्ड दिया जाता था (अधि० २, प्रक० ५६)।
व्यापार और वाणिज्य-प्राचीन बौद्ध काल में शिल्प-कला और व्यापार बहुत उन्नत अवस्था में थे। उस समय के लोगों ने शिल्प और चित्रकारी में विशेष उन्नति की थी। जातकों से कम से कम अठारह तरह के व्यवसायों का पता लगता है । प्रत्येक व्यवसाय के लोग अपना अपना समाज या श्रेणी बनाकर रहते थे। इन समाजों के मुख्यिा श्रेणी-प्रमुख कहलाते थे। उस समय दूर दूर के देशों से व्यापार होता था । यहाँ के सौदागर चीन, फारस, लंका तथा बैबिलोनिया तक जाते थे; और वहाँ के सौदागर व्यापार करने के लिये यहाँ आते थे। देश में व्यापार भी खूब होता था । रोजगार करने के लिये सौदागरों का काफिला निकलाता था। काफिले का सरदार "सत्यवाह" ( सार्थवाह) कहलाता था। सार्थवाह जैसा कहता था, व्यापारियों का समूह वैसा ही करता था । व्यापारी लोग बैल-गाड़ियों पर अपना माल
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