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बौद्ध कालीन भारत
२४६ प्राचीन वौद्ध काल का पालो साहित्य-बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध संघ में मतभेद हो जाने के कारण मगध की राजधानी राजगृह में पाँच सौ भिक्षुओं की एक सभा हुई। यह सभा लगातार सात महीनों तक होती रही । इसमें बुद्ध भगवान् के विनय
और धर्म सम्बन्धी उपदेश संगृहीत किये गये। इसके सौ वर्ष बाद, अर्थात् ई० पू० ३८७ में, एक दूसरी सभा वैशाली में हुई, जिसका मुख्य उद्देश्य उन दस प्रश्नों का निर्णय करना था, जिनके बारे में मतभेद हो गया था। इस सभा में बुद्ध भगवान् के सिद्धान्तों की पुनरावृत्ति की गई। इसके १३५ वर्ष बाद सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के ग्रन्थों अर्थात् “त्रिपिटक” का रूप अन्तिम बार निश्चित करने के लिये ई० पू० २४२ के लगभग पटने में एक तीसरी सभा की; और भिक्षुओं को विदेशों में भेजकर बौद्ध धर्म का प्रचार कराया। कहा जाता है कि अशोक ने लंका में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिये अपने पुत्र महेन्द्र को वहाँ के राजा तिष्य के पास भेजा। महेन्द्र अपने साथ बहुत से ऐसे भिक्षु भी लेता गया था, जिन्हें त्रिपिटक कण्ठाग्र थे। इस प्रकार लंका में वे त्रिपिटक पहुँचे, जो पटने की सभा में निश्चित हुए थे। इसके लगभग डेढ़ सौ वर्ष बाद, अर्थात् ई० पू० ८० के लगभग, ये पिटक लंका में लिपिबद्ध किये गये।
इन बातों से प्रकट है कि तीनों पिटक ई० पू०२४२ से बहुत पहले के हैं। वास्तव में विनयपिटक में इस बात के भीतरी प्रमाण मिलते हैं कि इस पिटक के मुख्य मुख्य भाग वैशाली की सभा के पहले के अर्थात् ई० पू० ३८७ से भी पहले के हैं; क्योंकि विनयपिटक के मुख्य मुख्य भागों में उपर्युक्त दस प्रश्नों के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com