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बौर-कालीन भारत ऊँची ऊँची चट्टानों में काटकर बनाये जाते थे। बिहार में चैत्य की एक गुफा है । कहा जाता है कि यही राजगृह की वह सतपनि । गुफा है, जिसमें बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्धों की पहली महासभा हुई थी। गया से १६ मील उत्तर अनेक गुफाओं का एक समूह है । उनमें सब से मनोरंजक गुफा “लोमश ऋषि की गुफा" के नाम से प्रसिद्ध है। उसकी छत्त नुकीली वृत्ताकार है और उसके मुँह पर सादे पत्थर का काम है। ये सब चैत्य ई० पू० तीसरी शताब्दी के खुदे हुए कहे जाते हैं । पश्चिमी घाट में चार पाँच चैत्य की गुफाएँ हैं। उनमें से भाजा, कोन्दाने, पीतलखोरा, बेदसा और नासिक की चैत्य गुफाएँ मुख्य हैं । पहले चार स्थानों कीगुफ़ाएँ ई० पू० तीसरी शताब्दी की और अन्तिम स्थान की चैत्य गुफा ई० पू० दूसरी शताब्दी की मानी जाती है ।
प्राचीन बौद्ध काल की शिल्प कला के नमूनों को देखने से पता लगता है कि उस समय भारतवर्ष सुख और समृद्धि से पूर्ण था। लोग स्वतंत्र, सुखी और चिन्ता-रहित थे। मौर्य काल की मूर्तिकारी में उस समय का चित्र मलक रहा है । बौद्ध काल में और विशेष करके अशोक के समय में बौद्ध धर्म के प्रभाव से समाज के भिन्न भिन्न अंग धीरे धीरे एक हो रहे थे। इस अवस्था का चित्र भरहूत और साँची के स्तूपों के चारो ओर के परिवेष्टनों
औरतोरणों में साफ दिखाई देता है । उस समय मूर्तिकार को मूर्तिकारी के उन कठिन नियमों में जकड़बन्द नहीं होना पड़ता था, जो आगे चलकर गुप्त काल में प्रचलित हो गये थे। उस समय की मूर्तियों में एक प्रकार की सजीवता, सादापन और प्राकृतिकता है, जो बाद की मूर्तियों में नहीं मिलती।
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