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बौर-कालीन भारत
२९८ तक के, वासिष्क के लेख २४ से २८ वर्ष तक के, हुविष्क के लेख ३३ से ६० वर्ष तक के और वासुदेव के लेख ७४ से ९८ वर्ष तक के हैं। इससे मालूम होता है कि या तो कनिष्क ने अपना नया संवत् चलाया, या पहले से चले आये हुए संवत् के सैंकड़े छोड़ दिये; क्योंकि कनिष्क के पूर्व किसी संवत् चलानेवाले राजा का तीन ही साल के लिये राज्य होना असंभव है । इसी लिये कनिष्क के काल-निर्णय के विषय में निम्नलिखित पाँच मत प्रचलित हैं।
(१) पहला मत यह है कि कनिष्क ने विक्रम संवत् चलाया। इस मत के पोषक मुख्यतः डाक्टर फ्लीट और केनेडी हैं। इनके मत से कनिष्क ई० पू० ५७ में गद्दी पर बैठा
और उसी ने विक्रम संवत् चलाया। बाद में मालवा के लोगों ने इसे अपनाया और उनमें यह विक्रम के नाम से प्रचलित हुआ । डाक्टर फ्लीट के मत का मुख्य आधार एक बौद्ध दन्तकथा है । इस दन्त-कथा के अनुसार बुद्ध के निर्वाण के ४०० वर्ष बाद कनिष्क राजा हुआ; अर्थात् वह ईसा के पूर्व प्रथम शताब्दी में वर्तमान था । जब कनिष्क ईसा के पूर्व प्रथम शताब्दी में माना गया और साथ ही यह भी माना गया कि उसने एक संवत् भी चलाया, तब जो संवत् ईसा के पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रचलित हुआ, उससे सहज ही उसका सम्बन्ध जोड़ दिया गया। इसी लिये डाक्टर फ्लीट और उनके अनुयायी कनिष्क को ही विक्रम संवत् का प्रवर्तक मानने लगे। इसी की पुष्टि में केनेडी साहब कहते हैं कि चीन से जो रेशम युरोप में जाता था, वह वहाँ से कश्मीर, कश्मीर से काबुल, काबुल से फारस, और फिर फारस की खाड़ीसे होकर युरोप में पहुँचता था। यह व्यापार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com