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धामिक शा
को मान्य थे। इस महासभा में सब से मार्के की बात यह हुई 'कि अठारहो सम्प्रदायों के बीच का पुराना मगड़ा सदा के लिये तै हो गया। पर इसके साथ ही कुछ नये नये सम्प्रदाय भी सिर उठागे लगे । इस तरह का एक सम्प्रदाय "महायान" था। यह पहले ही से अपनी प्रारंभिक अवस्था में विद्यमान था। पर उस समय इसका प्रचार शीघ्रता से होने लगा था। __ महायान संप्रदाय की उत्पत्ति-प्रारम्भ में बुद्ध का धर्म एक प्रकार का संन्यास-मार्ग था । “सुत्तनिपात" के "खग्गविसाणसुत्त" में लिखा है कि जिस भिक्षु ने पूर्ण अर्हतावस्था प्राप्त कर ली हो, वह कोई काम न करे; केवल गेंड़े के समान वन में निवास करे । “महावग्ग" (५-१-२७) में लिखा है-"जो भिक्षु 'निर्वाण पद तक पहुँच चुका हो, उसके लिये न तो कोई काम ही
अवशिष्ट रह जाता है और न उसे किया हुआ कर्म ही भोगना 'पड़ता है।" यह संन्यास मार्ग नहीं तो और क्या है ? उपनिषद् के संन्यास-मार्ग से इसका पूरा मेल मिलता है। पर अशोक के समय में बौद्ध धर्म की यह हालत बदल गई थी। बौद्ध भिक्षुओं ने अपना संन्यास मार्ग और एकान्त वास छोड़ दिया था और वे धर्म-प्रचार तथा परोपकार के लिये पूर्व में चीन तक और पश्चिम में यूनान तक फैल गये थे। जब उन्होंने शुष्क संन्यास-मार्ग का
आचरण छोड़कर परोपकार के कामों में सम्मिलित होना प्रारम्भ किया, तब नये और पुराने मत में झगड़ा पैदा हो गया। पुराने मत के लोग अपने मत को "थेरवाद" ( वृद्ध पंथ ) कहने लगे;
और नवीन मत-वादी अपने पंथ का "महायान" नाम रखकर पुराने पंथ को "हीनयान" (हीन पंथ) कहने लगे।
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