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बौद्ध-कालीन भारत
२६२ जो सूचित करता है कि भगवान बुद्ध ने सारनाथ ही में पहले पहल अपने धर्म का चक्र चलाया था और बौद्ध धर्म का प्रचार वहीं से आरम्भ हुआ था। सिंहों पर भी एक “धर्मचक्र" था, जो नष्ट हो गया है। उसके कुछ टुकड़े सारनाथ में, स्तंभ के पास ही, मिले थे । भारतीय पुरातत्व तथा शिल्प कला के विद्वानों का मत है कि किसी दूसरे देश में पशुओं की ऐसी अच्छी, सुंदर, स्वाभाविक और सजीव प्राचीन मूर्ति मिलना कठिन है, जैसी सारनाथ के अशोक-स्तंभ पर है। इन मूर्तियों में प्राचीन ईरान की मूर्तिकारी की कुछ झलक अवश्य है; किन्तु भारतीय मूर्तिकारों ने इस विषय में विदेशियों से चाहे जो बातें ग्रहण की हों, पर उन्हें उन्होंने अपने भावों में ऐसा ढाल लिया था कि अब उसमें लोगों को विदेशी प्रभाव का पता मिलना कठिन है।
मौर्य काल के अन्य चार स्मारक चिह्न इन चार स्थानों में मिलते हैं-(१) भरहूत, (२) साँची और (३) अमरावती के स्तूप तथा (४) बुद्ध गया के प्राचीन ध्वंसावशेष । इन चारों का समय ई० पू० तीसरी शताब्दी से पहली शताब्दी तक माना गया है । साँची और भरहूत के स्तूपों के चारो ओर पत्थर का घेरा या परिवेष्टन है। बनावट से मालूम होता है कि उन पर संगतराश का काम नहीं, किन्तु बढ़ई का काम है । उन पर जो नक्काशी है, वह लकड़ी पर की नकाशी से मिलती जुलती है। जान पड़ता है. कि जब पत्थर की इमारतें तथा मूर्तियाँ बनने लगी, तब जो काम पहले लकड़ी पर होता था, वही पत्थर पर होने लगा। यह बात भरहूत, साँची और गया के परिवेष्टनों तथा तोरणों पर की मूर्तियों और बेल बूटों से अच्छी तरह सिद्ध होती है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com