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बौद्ध-कालीन भारत
२३० खाना भी रखते थे। जुलाहों, सुनारों और रंगरेजों के महल्ले अलग अलग होते थे । इसी तरह और सब पेशेवाले भी अलग अलग महल्ले में रहते थे । जातकों से पता लगता है कि बाजारों में कपड़े, तेल, साग-भाजी, फल-फूल, सोने-चाँदी के गहने आदि सभी प्रकार के पदार्थ बिकते थे। कौटिलीय अर्थशास्त्र (अधि० २, प्रक० २४ ) में लिखा है कि प्रत्येक नगर में एक पण्यगृह ( बाजार ) रहता था। यह चौकोर होता था और इसके चारों ओर दूकानें रहती थीं । यह पक्का बना होता था ।
अर्थशास्त्र के अनुसार नगर में एक संस्थाध्यक्ष ( व्यापारवाणिज्य का अध्यक्ष ) रहता था, जो व्यापारों और व्यापारियों की देख भाल रखता था। यदि कोई व्यापारी पुराना माल बेचने के लिये नगर में लाता था, तो वह तभी बेचने पाता था, जब संस्थाध्यक्ष के सामने यह सिद्ध कर देता था कि माल चोरी आदि का नहीं है । संस्थाध्यक्ष इस बात की भी देख भाल रखता था कि व्यापारी नाप और तौल के बटखरे आदि ठीक ठीक रखते हैं या नहीं (अधि० ४, प्रक० ७७)। जो व्यापारी नाप और तौल में ग्राहकों को ठगता था, उसे दंड दिया जाता था। माल में मिलावट भी न हो सकती थी । मिलावट करने पर जुरमाना देना पड़ता था । संस्थाध्यक्ष यह भी नियम बनाता था कि व्यापारी कितना फी सदी मुनाफा ले सकते हैं। यदि कोई व्यापारी इस नियम का भंग करता था, तो वह दंड पाता था। नगर के फाटक के बाहर एक शुल्कशाला (चुंगी-घर ) रहती थी (अधि० २, प्रक० ३९)। जब व्यापारी बाहर से माल लेकर नगर के फाटक पर आते थे, तब शुल्काध्यक्ष (चुंगी के निरीक्षक ) अपने कर्म
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