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बौद्ध-कालीन भारत
२३८ जहाजों के कर्मचारियों के नाम और काम भी लिखे हैं । नाविक विभाग का अफसर “नावध्यक्ष" कहलाता था। वह समुद्रों तथा नदियों में चलनेवाले सब प्रकार के जहाजों और नावों की देख भाल करता था। किन किन लोगों से जहाजों और नावों द्वारा यात्रा करने में कर न लिया जाय, इसका विचार भी वही करता था। इन सात प्रकार के आदमियों से कर न लिया जाता था-ब्राह्मण, साधु, बालक, वृद्ध, रोगी, सरकारी दूत
और गर्भवती स्त्री। कर वसूल करना, तूफान वगैरह के समय जहाजों की रक्षा करना और यात्रियों के सुभीते के लिये नियम बनाना भी नावध्यक्ष का ही काम था। तूफान से टूटे फूटे जहाजों की देख भाल तत्काल ही होती थी। जिस जहाज़ को तूफ़ान से तनिक भी हानि पहुँचती थी, उससे माल का कर न लिया जाता था या उसका आधा कर माफ कर दिया जाता था। जहाज़ के कप्तान को “शासक" और जहाज़ खेनेवाले माझी को "नियामक" कहते थे। डाकू भी जहाजों के द्वारा डाका डालते थे । ऐसे जहाजों को "हिंत्रिका" कहते थे। ऐसे जहाजों को नष्ट करना भी “नावध्यक्ष" का ही काम था ।
अशोक के समय में भी जहाजों की बड़ी उन्नति थी । इसी कारण अशोक के भेजे हुए धर्म प्रचारक दूर दूर के सीरिया, मिस्र, साइरीनी, मेसिडोनिया और एपिरस नामक पाश्चात्य देशों में तथा लंका में बौद्ध धर्म का प्रचार करने और भारत की कीर्तिपताका फहराने में समर्थ हुए थे।
व्यायारियों में सहयोग प्राचीन बौद्ध काल में हर व्यापार और हर पेशे के लोग आपस में सहयोग करके समाज या श्रेणी
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