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सांपत्तिक अवस्था
लादकर चलते थे, जिनमें दो बैल जुते रहते थे। नावों के द्वारा भी माल एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाया जाता था । बीच बीच में जहाँ व्यापारियों का समूह किसी नये राज्य या प्रदेश की सीमा में घुसता था, वहाँ उसे एक प्रकार की चुंगी या कर देना पड़ता था। डाकुओं से उनकी रक्षा करने के लिये स्वेच्छा-सेवक पुलिस भी रहती थी। पुलिस का खर्च व्यापारियों को देना पड़ता था। इन सब बातों से मालूम होता है कि एक जगह से दूसरी जगह माल ले जाने में व्यापारियों को बड़ा खर्च पड़ता था ।
रेशमी और महीन सूती कपड़े (जैसे मलमल आदि) कम्मल, लोहे के कवच, हथियार और छुरी वगैरह, सोने चाँदी के तारों के काम के कपड़े, सुगन्धित पदार्थ, औषधे, हाथी-दाँत और उससे बनी हुई चीजें, जवाहिरात और सोने के गहने आदि बहुतायत से बिकते थे। ये सब चीजें विदेशों में भी भेजी जाती थीं। पदार्थों के विनिमय की प्रथा धीरे धीरे उठती जा रही थी और सिकों का प्रचार अच्छी तरह से हो गया था । सव से साधारण सिक्का ताँबे का “कहापण" (कार्षाण) था । दूसरे प्रकार के सिक्के “निक" (निष्क) और "सुवरण" (सुवर्ण) थे। ये दोनों सिक्के सोने के थे। “कंस", "पाद", "माष" और "काकणिका" नाम के सिक्कों का भी चलन था। ये सिक्के कदाचित् ताँबे या काँसे के होते थे। “सिप्पिकानि" (कौड़ियों) का भी प्रचार था। विनय पिटक से पता चलता है कि पाँच "माष" एक “पाद" के बराबर होता था और एक “निष्क" में पाँच "सुवर्ण" होते थे। बौद्ध काल के बहुत से प्राचीन सिके मिले हैं, जो अंक-चिह्नित (Punch marked) कहलाते हैं। ऐसे सिके ढाले नहीं जाते थे। उन पर
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