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राजनीतिक विचार
वह तीन बार “कर्मवाचा" करता था; अर्थात् तीन बार वह प्रस्ताव उपस्थित करता था । परिषद् का कोई कार्य तब तक नियमानुसार न समझा जाता था, जब तक उसके संबंध में परिषद् के सामने एक बार "ज्ञप्ति" और एक या तीन बार “कर्मवाचा" न हो। जब प्रस्ताव नियमानुसार एक या तीन बार संघ के सामने रख दिया जाता था, तब वह आप ही आप स्वीकृत हो जाता था।
बहुमत-यदि कोई सभ्य प्रस्ताव के विरुद्ध कुछ कहता था और उस पर मत-भेद होता था, तो उपस्थित सभ्यों की राय ली जाती थी; और बहुमत के अनुसार ही फैसला किया जाता था । राय (वोट) लेने के पहले सभ्य-गण व्याख्यान के द्वारा अपने अपने विचार प्रकट करते थे और अपनी अपनी राय पर जोर देते थे । सभ्यों की राय भिन्न भिन्न रंग की शलाकाओं के द्वारा ली जाती थी। एक मत के लिये एक रंग की शलाका होती थी और दूसरे मत के लिये दूसरे रंग की। यह शलाका आज कल के वोटिंग टिकट या पर्चे का काम देती थी। लोगों की राय लेने के लिये
और उन्हें यह बतलाने के लिये कि किस रंग की शलाका से क्या तात्पर्य है, संघ की ओर से एक भिक्षु नियत रहता था, जिसे “शलाका ग्राहक" कहते थे। जो मनुष्य निष्पक्ष, निर्भीक और ईर्ष्या से रहित होता था, वही "शलाका-ग्राहक" नियुक्त होता था । सभ्यों की राय या तो प्रकट रूप से ली जाती थी, या गुप्त रूप से।
अनुपस्थित सभ्यों की राय-जब कोई सभ्य, बीमारी या और किसी कारण से, उपस्थित न हो सकता था, तब वह अपनी राय भेज देता था। अनुपस्थित सभ्यों की नियमानुसार सम्मति को "छन्द" कहते थे । परिषद् की कोई बैठक तब तक नियमानु
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