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सामाजिक अवस्था से होता था। उस समय सब लोग ऐसे ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा करते थे। “समण" (श्रमण) और "ब्राह्मण" शब्द जातकों तथा अन्य बौद्ध ग्रंथों में साथ साथ आये हैं। इससे पता लगता है कि सच्चे ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा श्रमणों के बराबर होती थी। ब्राह्मणों का जीवन चार आश्रमों में विभक्त था । ब्रह्मचर्य आश्रम में वह गुरु के यहाँ रहकर विद्या पढ़ता था; और इसके बाद गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता था। बाद को गृहस्थाश्रम का त्याग करके वानप्रस्थाश्रम ग्रहण करता था; या तपस्वी की तरह जीवन बिताता था; या विद्यार्थियों को शिक्षा देता था। चौथा आश्रम संन्यासी या भिक्षु का था । इस आश्रम में वह भिक्षा माँगकर उदर-पालन करता था । कभी कभी कोई ब्राह्मण ब्रह्मचर्याश्रम के बाद ही संन्यासाश्रम में प्रविष्ट हो जाता था। जब ब्राह्मण बालक सोलह वर्ष का होता था, तब गुरु के यहाँ भेजा जाता था। इस बीच में कदाचित् वह घर ही में पढ़ाया जाता था। प्रायः विद्यार्थी पढ़ने के लिये तक्षशिला में भेजे जाते थे। वे तीनों वेदों का अध्ययन करते थे । किसी ब्राह्मण की प्रशंसा में कहा जाताथा कि वह तीनों वेदों का पूर्ण पण्डित है (तिएणं वेदानं पारंगतो)। "तिलमुट्ठि जातक" से पता लगता है कि विद्यार्थी (अन्तेवासिक) दो प्रकार के होते थेएक "धर्मान्तेवासिक" जो गुरु की सेवा-शुश्रूषा करते और उसके बदले में विद्या पढ़ते थे; और दूसरे "आचार्य भागदायक" जो गुरु को गुरु-दक्षिणा देकर विद्याध्ययन करते थे। गुरु के यहाँ विद्यार्थी पुत्रवत् रहते थे। ऊपर जो वर्णन किया गया है, वह आदर्श ब्राह्मणों का है। पर उस समय बहुत से ब्राह्मण ऐसे भी थे, जिन्हें
हम "सांसारिक" या "दुनियावी" ब्राह्मण कह सकते हैं। ऐसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com